Wednesday 16 July 2014

संसद की गिरती गरिमा

न चलने का नाम संसद 
  Feb 4, 2014,

15 वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्ति पर है और 16 वीं के गठन के लिए चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। बुधवार से मौजूदा लोकसभा का आखिरी सत्र शुरू हो रहा है। लेकिन यह देखना सचमुच निराशाजनक है कि इस अंतिम सत्र में हमारे सांसद अगर असाधारण सौहार्द और परिपक्वता का परिचय दें तो भी 15 वीं लोकसभा को इतिहास में सबसे नाकारा सदन के रूप में दर्ज किया जाएगा।  इस लोकसभा ने पांच साल के अपने कार्यकाल में कुल जमा 165 बिल पास किए, जो आजादी के बाद गठित सभी लोकसभाओं की तुलना में सबसे कम हैं। इस वक्त संसद के सामने कुल 126 बिल लंबित पड़े हैं जिनमें 72 सिर्फ लोकसभा में धूल खा रहे हैं और इसका कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही बेमौत मर जाएंगे। कोई बिल कितने टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुए संसद के पटल तक पहुंचता है, यह ध्यान में रखें तो सहज ही अंदाजा होता है कि यह श्रम और ऊर्जा की कितनी बड़ी बर्बादी है।  अगर ये लंबित बिल संसद में पेश कर दिए गए होते और बहस के बाद इन्हें पास करने लायक नहीं माना जाता या इन पर अलग से विचार की जरूरत महसूस करते हुए इन्हें स्टैंडिंग कमेटी के पास भेज दिया गया होता तो भी ठीक था। लेकिन सरकार इन्हें लोकसभा में पेश करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई। इससे ऐसा लगता है कि सरकार का मुख्य अजेंडा किसी तरह खुद को बचाए रखने का ही बना रहा, जो अंतत: इसकी बेचारगी ही बयान करता है। हालांकि संसद की कार्रवाई को लेकर विपक्ष का रवैया भी ऐसा नहीं रहा, जिससे भारत के संसदीय लोकतंत्र को लेकर कोई उम्मीद जगती हो। इसमें कोई शक नहीं कि विरोध की आजादी लोकतंत्र की मूल आत्मा है। लेकिन विरोध और असहमति का अर्थ अगर संसद ठप करके सारी बहसें टीवी पर चलाने का हो जाए तो इससे संसद के महत्वहीन हो जाने का खतरा पैदा होता है।  निस्संदेह, मनमोहन सरकार का यह दूसरा कार्यकाल विवादों और घपलों-घोटालों से भरा रहा। ऐसे में विपक्षी दलों का संसद के अंदर तगड़ा विरोध करना स्वाभाविक था। लेकिन, क्या एक जिम्मेदार विपक्ष को यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिए कि सरकार को कटघरे में खड़ा करने की उसकी कोशिशें राष्ट्रीय हितों के आड़े न आएं? ऐसा लगता है कि संसद की गरिमा के सवाल को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने पूरा दोष एक-दूसरे के मत्थे मढ़ने में ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाई।  पूरा राजनीतिक नेतृत्व ही संसदीय लोकतंत्र का दिल कही जाने वाली संस्था के प्रति इस हद तक गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार करे, इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति एक व्यवस्था के लिए कोई और नहीं हो सकती। आशंका है कि बिल पास कराने से लेकर राजनीतिक विमर्श संचालित करने तक के मामले में जाहिर हुई 15 वीं लोकसभा की विफलता आने वाले कई वर्षों तक देश पर बुरा असर डालेगा और संसद के प्रति जनता का भरोसा वापस लौटाने के लिए भगीरथ प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी। 
-------------------------

निराशाजनक शुरुआत
Tuesday,Jul 08,2014

संसद के बजट सत्र की शुरुआत जिस तरह हंगामे से हुई वह निराशाजनक है। यह ठीक है कि कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने महंगाई के सवाल को दोनों सदनों में उठाने की बात की थी, लेकिन इसकी अपेक्षा नहीं की जा रही थी कि लोकसभा में पहला दिन ही हंगामे से दो-चार होगा। आखिर महंगाई पर जैसी चर्चा राज्यसभा में हुई वैसी लोकसभा में क्यों नहीं हो सकती थी? शायद विपक्ष महंगाई पर चर्चा करने के बजाय हंगामा करने के लिए अधिक इच्छुक था। उसका जोर इस पर था कि महंगाई पर वोटिंग वाले नियम के तहत चर्चा हो। सरकार ऐसे नियम वाले प्रावधान के तहत चर्चा करने से बचना चाहती थी। महज 41 दिन पुरानी सरकार को वोटिंग वाले नियम के तहत महंगाई पर चर्चा के लिए विवश करने का कोई तुक नजर नहीं आता। वैसे भी चर्चा महत्वपूर्ण होती है, न कि उसके बाद वोटिंग कराना। वोटिंग वाले प्रावधान के तहत महंगाई पर चर्चा की मांग का तब तो कोई औचित्य बनता था जब सरकार ने साल-डेढ़ साल का कार्यकाल पूरा कर लिया होता और इस दौरान महंगाई पर होने वाली चर्चाओं से कुछ हासिल नहीं हुआ होता। कांग्रेस को यह अच्छी तरह स्मरण होगा कि उसने सत्ता में रहते समय कितनी बार वोटिंग वाले प्रावधान के तहत महंगाई पर चर्चा कराई। नि:संदेह महंगाई एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और केंद्र सरकार से यही अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे प्रयास करे जिससे यदि महंगाई कम नहीं हो सकती तो उसे बढ़ने न दिया जाए। यह ठीक नहीं कि पिछले कुछ समय से खाद्य पदार्थो के दाम बढ़ते दिखाई दिए हैं। हालांकि राज्यसभा में वित्तामंत्री अरुण जेटली ने महंगाई पर चर्चा के दौरान यह भरोसा दिलाया कि सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है और घबराने की जरूरत नहीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि विपक्ष ऐसे आश्वासनों पर संतुष्ट होगा।
महंगाई अथवा अन्य मुद्दों पर विपक्ष को विरोध के लिए विरोध के रवैये का परित्याग करना होगा। नि:संदेह सत्तापक्ष से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह विपक्ष को संतुष्ट करे। इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा में उसके पास पर्याप्त से अधिक बहुमत है, लेकिन उसके, संसद और देश के हित में यही है कि सत्तापक्ष और विपक्ष में तालमेल कायम हो। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पिछली लोकसभा का अनुभव बहुत ही खराब रहा। 15वीं लोकसभा जिस तरह लगातार हंगामे से दो-चार होती रही उससे राजनीतिक दलों के साथ-साथ संसद की गरिमा भी प्रभावित हुई है। जिस तरह यह अपेक्षित है कि भाजपा बदले हुए रुख-रवैये का परिचय दे उसी तरह विपक्ष से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह बात-बात पर हंगामा करने से बचे। 16वीं लोकसभा के इस पहले बजट सत्र पर सारे देश की निगाहें लगी हुई हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है और यह अपेक्षा की जा रही है कि नई सरकार इन चुनौतियों से निपटने की ठोस रूपरेखा प्रस्तुत करेगी। यह तभी संभव है जब संसद में सार्थक कामकाज हो। यह सही है कि विपक्ष को सरकार के फैसलों का विरोध करने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल इस तरह किया जाना चाहिए कि संसद का कामकाज बाधित न हो।
[मुख्य संपादकीय]
--------------------
ताकतवर संसद के सामने तापस
Tuesday,Jul 08

संसद का बजट सत्र शुरू हो गया। पहले ही दिन वैसा ही हंगामा देखने को मिला जैसा पहले भी देखने को मिलता रहा है। पहले जो हंगामे से दो-चार होते थे वे अब खुद हंगामा करते दिखे। यह संसद की रीति बन गई है। सत्तापक्ष जब विपक्ष में आता है तो वह वैसा ही व्यवहार करता है जैसे व्यवहार को वह निषेध कहा करता था। शायद संसद अपने कुछ अवांछित तौर-तरीकों से कभी नहीं मुक्त होने वाली, लेकिन बावजूद इसके यह उम्मीद की जाती है कि सत्तापक्ष-विपक्ष ने 15वीं लोकसभा के खराब कार्यकाल से कुछ सबक सीखे होंगे। बजट सत्र से यह पता चल जाएगा कि सत्तापक्ष-विपक्ष को अपनी और साथ ही संसद की गरिमा की कोई परवाह है या नहीं? हाल के समय में जनता को यह अहसास कराया गया है कि संसद महान, पवित्र और ताकतवर है। संसद के कार्य-व्यवहार पर सवाल खड़े करने वालों को अपनी सीमा में रहने की हिदायत भी दी गई है। यदा-कदा ऐसी हिदायतें उन सांसदों को भी मिली हैं जिन्होंने संसद के अंदर या बाहर बुरा बर्ताव किया है। बुरा बर्ताव करने वाले एक सांसद इन दिनों बहुत कुचर्चित हैं। सारे देश को यह प्रतीक्षा है कि महान, पवित्र और ताकतवर बताई जाने वाली संसद अपने इस सदस्य से किस तरह पेश आती है।
इन संसद सदस्य का परिचय जानने के पहले यह जान लें कि उन्होंने किया अथवा कहा क्या है? उन्होंने कहा, ''अगर कोई माकपाई यहां है तो सुन ले कि किसी तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता या उसके घर वालों को हाथ लगाया गया तो उसकी खैर नहीं। मैं तो गुंडा हूं। गोली मार दूंगा। अगर किसी ने तृणमूल कांग्रेस की माताओं-बहनों का अपमान किया तो मैं अपने लड़कों को कहूंगा कि वे ऐसा करने वालों के घर जाएं और रेप करें।'' वह यह कहते भी सुने गए, ''जब तक मैं तुम्हारे साथ हूं, किसी माकपा कार्यकर्ता को बख्शो नहीं। तुम सब बोंटी तो रखते ही होगे। उसी से उनके गले रेत दो।'' उनका एक और भाषण ऐसा था, ''धारदार हथियार तैयार रखो और उनके सिर के बीचों-बीच मारो। मैं देखता हूं कोई पुलिस वाला कैसे तुम्हें गिरफ्तार करता है?'' अब शायद ही किसी को यह बताने की जरूरत हो कि यह सब कहने वाले कौन हैं? जी हां यह तृणमूल कांग्रेस के कृष्णानगर से दूसरी बार सांसद चुने गए तापस पाल ही हैं। अगर आप उनके इन भाषणों के वीडियो देख सकें तो आप यह पाएंगे कि वह किस तरह अपने लोगों को बताते हैं कि बोंटी से माकपाइयों का गला इस तरह काटें। चूंकि वह अभिनेता भी हैं इसलिए उनके लिए यह सब बताना बहुत आसान रहा होगा कि कैसे किसी को मारो-काटो। इस पर हैरान न हों कि ममता बनर्जी और दूसरे तृणमूल नेताओं ने उन्हें माफ कर दिया है। तृणमूल में इस माफी पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, क्योंकि मां-माटी और मानुष की बात करने वाली ममता बनर्जी पहले ही यह कह चुकी हैं कि क्या मैं उसकी जान ले लूं? हालांकि तापस पाल को अब तक गिरफ्तार हो जाना चाहिए था, लेकिन बंगाल की पुलिस में यह साहस ही नहीं। तापस खुले आम रेप कराने की धमकी दे रहे थे और विरोधियों की हत्या करने के लिए अपने लोगों को उकसा रहे थे। नियम-कानून-संविधान पर ऐसे खुले हमले के बावजूद अगर वह आजाद घूम रहे हैं तो ममता बनर्जी और उनकी पुलिस की कृपा से।
ममता केवल तापस पर ही मेहरबान नहीं हैं। वह अपने अन्य नेताओं-अर्बुल इस्लाम, अनुब्रत मंडल, मनीरुल इस्लाम, अरूप चक्रवर्ती, मदन मित्रा और ज्योतिप्रिय मलिक पर भी मेहरबान हैं। इनमें से कई मंत्री भी हैं। ये वे नेता हैं जो विरोधियों को चुनाव न लड़ने देने और उनके घरों को बम से उड़ा देने की सलाह अपने कार्यकर्ताओं को देते रहे हैं। वामदलों से भी ज्यादा गुंडागर्दी का प्रदर्शन तृणमूल कांग्रेस की विशेषता बन गई है। बंगाल के लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या इसी परिवर्तन के लिए ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी हैं, लेकिन वह बेपरवाह हैं। उन पर किसी का जोर नहीं, लेकिन आखिर हमारी ताकतवर संसद तापस के खिलाफ कुछ करेगी या नहीं? यदि संसद तापस के मामले में मौन बनी रहती है तो उसके लिए अपनी गरिमा बचाए रखना मुश्किल होगा। आखिर ऐसा व्यक्ति संसद का हिस्सा कैसे रह सकता है जो लोगों को हिंसा के लिए उकसाता हो और महिलाओं के प्रति बेहूदे ढंग से बात करता हो? क्या संसद ऐसे सदस्य को सहन कर लेगी जो राजनीतिक विरोधियों खत्म करने की बात कहते हुए यह भी बताता हो कि अमुक हथियार से इस तरह उनका गला काट दो?
यह नहीं भूला जा सकता कि तापस पाल ने एक नहीं दो-दो बार संविधान रक्षा की शपथ ली है। क्या संसद अपने सदस्यों को इस तरह की बातें करने का अधिकार प्रदान करती है जैसी तापस ने कीं? अगर नहीं तो लोकसभा अध्यक्ष या संसद की आचरण समिति के स्तर पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होती क्यों नहीं नजर आ रही है? तापस पाल का आचरण उन सांसदों से भी ज्यादा गंभीर है जिन्होंने पैसे लेकर सवाल पूछने या फिर सिफारिशी चिट्ठियां लिखने का काम किया था। यदि उनकी सदस्यता छीनना मुश्किल हो तो कम से कम उन्हें संसद के दो-तीन सत्रों से बहिष्कृत करने और इस दौरान उनके वेतन-भत्तो काटने का काम तो किया ही जा सकता है। तापस पाल का कृत्य इतना शर्मनाक है कि उनके खिलाफ कार्रवाई न होने से कानून और संविधान के साथ-साथ संसद का भी मजाक उड़ेगा। अगर संसद तनिक भी शक्तिमान है तो उसे तापस पाल सरीखे सांसदों को सबक सिखाने की साम‌र्थ्य जुटानी ही चाहिए। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने दुष्कर्म के मामलों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने वालों को मौन रहने की सलाह दी थी। इस सलाह पर अमल किया जा सकता है, लेकिन ऐसे सांसद पर मौन नहीं रहा जा सकता जो विरोधियों के घरों में दुष्कर्म कराने की बात करता हो।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
------------------
संसद की गिरती गरिमा
Thursday,Jul 10,2014

16वीं लोकसभा की संरचना, अपने आप में ही बदलाव का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। कुछ लोग इस बदलाव को बहुत उम्मीद से देख रहे हैं, जबकि कुछ लोग भारत के भविष्य को लेकर अब भी चिंतित हैं। विचारधाराओं और संबद्धताओं में भिन्नता रखने वाले हमारे देशवासी इस बात से जरूर सहमत होंगे कि इस नई सरकार को वषरें से किए अधूरे वादों को पूरा करना होगा, लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा, आर्थिक मंदी से देश को निकालना होगा और प्रशासनिक गड़बड़ियों को सुलझाना होगा। मेरा मानना है कि देश की निराश-हताश जनता के भरोसे को जीतने के लिए सत्तारूढ़ सरकार और जनप्रतिनिधियों को सर्वप्रथम संसद की गरिमा को दोबारा बहाल करना होगा।
15वीं लोकसभा स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली लोकसभा के रूप में याद की जाएगी। अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में इस लोकसभा में केवल 345 दिन ही कार्य संभव हो सका, जिसमें 165 विधेयक पारित किए गए और लगभग इतने ही विधेयक लंबित पड़े हैं, जिन्हें 16वीं लोकसभा में दोबारा पेश करना होगा। 15वीं लोकसभा में लगभग 35 प्रतिशत विधेयक एक घंटे से कम समय की चर्चा के बाद पारित कर दिए गए। इन आंकड़ों के सहारे और संसद में सांसदों के दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार की कई घटनाओं के कारण बहुत से लोग यह मानते हैं कि पिछले पांच वषरें में भारत की कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था अपने मूलभूत कार्य में, अर्थात कानून के निर्माण में बुरी तरह से असफल रही है।
कई लोग संसद के इस निराशाजनक प्रदर्शन की जड़ पिछली सरकार की भिन्न विचारों को समायोजित करने और संसद में आम सहमति प्राप्त करने की अक्षमता में देखते हैं। हालांकि यह आंशिक रूप से सही है। मेरा मानना है कि संसद की इस स्थिति के पीछे का असली कारण है ब्रिटिश राज के रहस्यमयी नियम और प्रक्त्रियाएं जो आज भी हमारी संसद में लागू हैं और जो सभी दलों को संसद की कार्यवाही में बराबरी से हिस्सा लेने में बाधा डालती हैं।
भारत की संसद का गठन 1919 में हुआ था। देश के स्वतंत्रता प्राप्त करने से लगभग 30 वर्ष पहले। तब राष्ट्रवाद अपने चरम पर था और यह बात ब्रिटिश राज को सता रही थी। इस विद्रोह को कुछ हद तक कम करने के लिए और पूर्ण स्वतंत्रता की कठोर मांगों को विलंबित करने के लिए, अंग्र्रेजों ने संसद का निर्माण किया। इससे उन्होंने अभिजात वर्ग के कुछ चयनित प्रतिनिधियों को चुनिंदा मामलों में अपने मतों को व्यक्त करने का और कुछ कानून पारित करने का मौका दिया, लेकिन सच यह है कि किसी भी फैसले पर अंतिम निर्णय का अधिकार वाइसरॉय ने अपने पास बरकरार रखा।
स्वतंत्रता से लेकर आज तक संसद चलाने से जुड़े कई नियम बदले नहीं गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण और जो आज के समय में संसद में सबसे च्यादा बाधाओं का कारण है, वह है बहस और अन्य प्रस्ताव। उदाहरण के लिए निंदा प्रस्ताव को दाखिल किए जाने की प्रक्रिया। औपनिवेशिक काल से चला आ रहा यह नियम स्पीकर को यह खास अधिकार देता है। वास्तव में, ऐसे मामलों पर स्पीकर के निर्णय बिजनेस एडवाइजरी कमेटी द्वारा आम सहमती पर आधारित होते हैं, जिसमें संसद में सभी प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व होता है। सदन में सरकार के पास बहुमत होता है, इसलिए सदन से जुड़े सभी कायरें में उसके निर्णय सबसे महत्वपूर्ण होते हैं और इस प्रकार से ऐसे विषय जो सरकार को असहज करें, पेश नहीं किए जाते। आम सहमति की यह आवश्यकता सरकार को संसद में होने वाली किसी भी प्रकार की बहस या मतदान के ऊपर वीटो प्रदान करती है। जिस वीटो को मूल रूप से स्वतंत्रता पूर्व भारत की संसद को नियंत्रण में रखने के लिए वाइसरॉय के लिए बनाया गया था, उसका दुरुपयोग स्वतंत्र भारत में अब भी किया जा रहा है। इसके अलावा सत्तारूढ़ दल अकसर किसी ऐसे विषय पर चर्चा के बाद मतदान की मांगों को अनसुना करके, जहां उसे अपने दावे से कम समर्थन मिलने की स्थिति में शर्मिंदा होना पड़ सकता है, केवल ध्वनि मत द्वारा विधेयक पारित करने की कोशिश करता है। इस कारण कई महत्वपूर्ण कानून जो विस्तृत बहस के योग्य होते हैं ध्वनि मत से और अकसर शोरगुल में पारित कर दिए जाते हैं।
विडंबना से, ब्रिटिश स्वयं इस प्रणाली का पालन नहीं करते हैं। न ही बहुत से अन्य लोकतंत्र, जहांके नियम किसी भी प्रकार की बहस, प्रस्ताव और मतदान को दाखिल करने के लिए सांसदों की न्यूनतम संख्या को स्पष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में, एक चर्चा को अनुमति देने के लिए 40 सांसदों की आवश्यकता होती है। यूनाइटेड स्टेट्स में अड़ंगेबाजों पर काबू पाने के लिए 60 सीनेटरों की आवश्यकता होती है, जहां अन्यथा किसी मसले पर मतदान टालने के लिए सदस्यों को निरंतर बोलने की अनुमति होती है। भारत में भी, सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव को दाखिल करने के लिए 55 सांसदों की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर सरकार की सहमति न हो तो बहस के बाद मतदान की मांग रखने वाले सांसद प्रस्ताव को दाखिल नहीं कर सकते। दुनिया भर में स्वतंत्र विधानमंडलों में बहस के बाद मतदान आम होता है। अब समय आ गया है भारत में भी इस प्रथा को अपनाया जाए।
अब भूमिकाओं में परिवर्तन आ गया है। कुछ समय पहले तक जो दल विपक्षी दल कहलाता था वह अब संसद में सरकार बना चुका है। सत्तारूढ़ दल अपने लाभ के लिए उन्हीं प्रावधानों का दुरुपयोग कर सकते हैं या फिर बेहतरीन अंतरराष्‌र्ट्रीय प्रथाओं का पालन कर संसद के कार्य में थोड़े-बहुत बदलाव ला सकते हैं। मुझे विश्वास है कि ऐसे बदलावों का विभिन्न दलों के सांसद समर्थन करेंगे और इससे आम जनता के बीच हमारी सर्वोच्च संस्था की विश्वसनीयता दोबारा बहाल होगी। संसद बाधित होने से विकास कार्य और कल्याणकारी योजनाएं बाधित होती हैं। इसके अलावा, संसद में कामकाज न चलने तथा शोर-शराबे के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास भी डिगता है। इसलिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि संसद के सुचारू संचालन में बाधा बनने वाले नियमों में जल्द से जल्द सुधार किया जाए ताकि जब पांच साल बाद हम 16वीं लोकसभा के कामकाज की विवेचना करें तो हमें 15वीं लोकसभा की तरह निराश न होना पड़े।
[लेखक बैजयंत जय पांडा, बीजू जनता दल के सांसद हैं]
-----------------------------------

साख में सुधार की झलक

Sun, 17 Aug 2014

संसद का बजट सत्र बीते गुरुवार को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। करीब सवा महीने तक चले संसद के इस सत्र में जनता से जुड़े ढेरों मुद्दों पर जमकर बहस हुई। सांसदों ने अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह किया। यही वजह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से सत्र की सफलता का जिक्त्र करना नहीं भूले। मोदी ने बजट सत्र में दिखी गंभीरता के लिए सत्तापक्ष के साथ-साथ प्रतिपक्ष केसभी सांसदों का भी अभिवादन किया। जाहिर है सहमति का यह मजबूत धरातल ही संसदीय सत्र को सफल बनाता है। 16वीं लोकसभा का यह दूसरा सत्र था, जिसमें कुल 27 बैठकें हुईं। 167 घंटों तक चले सत्र में हमारे माननीयों ने जमकर हिस्सा लिया। इस सत्र में ही मोदी सरकार का पहला रेल बजट सामने आया, जिसमें पहली बार देश को बुलेट ट्रेन देने का वादा किया गया है। रेलवे के विकास को लेकर सरकार ने अपना विजन भी पेश किया। इस दौरान सरकार ने देश के समक्ष अपना पहला आम बजट भी पेश किया, जिसे लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को विश्वास में बदलने वाला और गरीबों के लिए आशा की एक नई किरण बताया गया है। संसद के इस सत्र के दौरान लोकसभा में रेल बजट पर 13 घंटे और आम बजट पर 15 घंटे की चर्चा के दौरान तमाम विपक्षी दलों और अन्य सदस्यों की तरफ से ढेरों सुझाव सामने आए। इस दौरान सदन में आरोप-प्रत्यारोप, व्यंग्य, विनोद सब कुछ दिखा। इस बीच लोकसभा ने सर्वसम्मति से अपना उपाध्यक्ष चुना। परंपरानुसार यह पद विपक्ष को ही दिया जाता रहा है, हालांकि इस बार सरकार ने यह सम्मान विपक्ष में बैठे सबसे बड़े दल यानी कांग्रेस को नहीं, बल्कि दूसरे सबसे बड़े विपक्षी दल एआइएडीएमके को दिया। राजनीतिक गणित को हल करते हुए डॉ. एम थंबीदुरई सर्वसम्मति से लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए।
प्रश्नकाल के लिहाज से यह सत्र बहुत ही सफल रहा। सरकार की तरफ से मंत्रियों ने 540 प्रश्नों में से 126 सवालों के मौखिक जवाब दिए यानी हर रोज औसतन 5 जवाब दिए गए। सत्र के दौरान एक दिन में आठ सवालों का जवाब देना और एक ही मंत्री द्वारा पूरे प्रश्नकाल के सभी सवालों के जवाब देना भी किसी रिकॉर्ड से कम नहीं कहा जाएगा। सत्र के दौरान महंगाई, बाढ़ व सूखा, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार और इंसेफेलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी पर गंभीर चर्चाएं हुईं। हालांकि सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर चर्चा का मामला कहीं अधिक सुर्खियों में रहा, जिस पर बहस की मांग को लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी संभवत पहली बार वेल तक हो-हल्ला करते हुए पहुंचे अवश्य, लेकिन चर्चा में शिरकत करने से दूर ही रहे। इसके साथ ही संघ लोकसेवा आयोग के सी-सैट तथा इराक में फंसे हुए भारतीय नागरिकों विशेषकर नसरें के मसले को उठाया गया। विधेयकों के पुन: स्थापित एवं पारित किए जाने के मामले में भी पिछली लोकसभा के पहले बजट सत्रों के मुकाबले इस बार आंकड़े कहीं बेहतर थे।
लोकसभा में 2004 में केवल 6 और 2009 में महज 8 विधेयक ही पारित किए जा सके थे, जबकि इस बार यह आंकड़ा 13 विधेयकों तक जा पहुंचा। राच्यसभा में भी स्थितियां बेहतर रहीं। हालांकि विपक्ष, खासकर कांग्रेस पार्टी के विरोध के चलते सरकार बीमा कानून संशोधन विधेयक को पारित नहीं करा सकी, लेकिन संविधान संशोधन विधेयक-2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक-2014 पर सदन ने सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगाई। इसके तहत जजों की नियुक्ति से संबंधित करीब दो दशक पुरानी कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है, ताकि न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके। ऐसा नहीं कि इस बार सत्र के दौरान लोकसभा में व्यवधान नहीं डाले गए, लेकिन सदस्यों ने देर तक बैठकर लंबित कायरें को पूरा करके एक सकारात्मक संदेश दिया। जाहिर है इससे संसद की छवि सुधरेगी। जिस सदन में 300 से च्यादा सांसद पहली बार चुनकर आए हों, वहां अगर प्रश्नकाल रिकॉर्ड स्थापित करता है, लंबित पड़े कामों को निपटाने के लिए और नुकसान हुए समय की भरपाई के लिए अतिरिक्त बैठकें होती हैं, अधिकाधिक सांसद चर्चाओं में शिरकत करते हैं तो यकीनन यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। लोकसभा में दिखे इस चमत्कारिक बदलाव का श्रेय काफी हद तक लोकसभा की वर्तमान अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को जाता है। जाहिर है सत्र का सफल या असफल होना स्पीकर के संचालन पर भी निर्भर करता है। दरअसल अध्यक्ष बनते ही सुमित्रा महाजन ने व्यवधान पैदा करने वालों को सख्ती से निपटने का संदेश दिया था। सत्र के दौरान नियमों को ताक पर रख कर हंगामा मचाने वाले कुछ माननीय सदस्यों के खिलाफ अध्यक्ष की गंभीर टिप्पणियों ने सकारात्मक प्रभाव छोड़ा, जिसके चलते सत्र के दौरान नियमों के पालन के प्रति गंभीरता पिछले कई वषरें के मुकाबले कहीं अधिक दिखी। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी अक्सर ऐसी ही सख्ती दिखाते थे। लोकसभा अध्यक्ष ने संसद की तस्वीर सुधारने के मकसद से अन्य कई गंभीर प्रयास या कहें उपाय भी किए हैं। पहली बार चुनकर आए जनप्रतिनिधियों के लिए दो प्रबोधन कार्यक्त्रम आयोजित किए जा चुके हैं, जिसमें माननीयों को संसदीय नियमों की जानकारी दी गई। अध्यक्ष ने सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच की संवादहीनता को भी कम करने का सफल प्रयास करते हुए विपक्ष को अपनी बात रखने का पर्याप्त समय दिया गया। महंगाई और सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर हुई घंटों की चर्चाएं इसका उदाहरण हैं। नए सांसदों को बोलने के लिए प्रोत्साहित किया गया और उन्हें मौका दिया गया। यकीनन 15वीं लोकसभा के रिकॉर्ड हंगामे के मुकाबले इस बार स्थितियां गुणात्मक रूप से सुधरी हैं। उम्मीद है कि इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भविष्य में भी हमारे माननीय जनाकांक्षाओं पर खरा उतरेंगे। इस संदर्भ में सभी सदस्यों को समझना होगा कि संसद हंगामे का नहीं, बल्कि चर्चा और विचार-विमर्श का सर्वोच्च मंच है।
[लेखक अनुराग दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार हैं]
====================

सदन की मर्यादा

जनसत्ता 11 जुलाई, 2014 : पिछले कुछ सालों से संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के हंगामा खड़ा करने, सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाने या फिर अपनी हरकतों से सदन की मर्यादा को कलंकित करने की घटनाएं बढ़ी हैं। पर इस तरह अगर कोई सदस्य पीठासीन अधिकारी पर भी निराधार आरोप लगाना शुरू कर दे तो इसे निहायत गैर-जिम्मेदाराना रवैया ही कहा जाएगा। तृणमूल कांग्रेस के सांसदों का आरोप है कि मंगलवार को रेल बजट पर अपना विरोध जताते हुए उसके सदस्यों के साथ कुछ भाजपा सांसदों ने दुर्व्यवहार किया, अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया और धमकी दी। अगर ये आरोप सही भी हैं तो क्या उसके विरोध का यह तरीका होना चाहिए कि लोकसभा अध्यक्ष पर ही अंगुली उठा दी जाए! सदन में व्यवस्था बनाए रखना अध्यक्ष की जिम्मेदारी है और इसके लिए उनकी ओर से सदस्यों को कोई निर्देश भी जारी किया जा सकता है। मगर बुधवार को लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जब हाथ में तख्तियां लेकर विरोध जता रहे तृणमूल सदस्यों से शांत रहने का आग्रह किया तो उन्होंने उन्हीं पर भाजपा की प्रवक्ता होने का आरोप लगा दिया। हालांकि तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में इसके लिए माफी मांगी, लेकिन सच यह है कि अध्यक्ष पर जिस तरह की टिप्पणी की गई, उससे सदन की गरिमा को चोट पहुंची। कुछ भाजपा सांसदों ने अगर तृणमूल सांसदों के साथ दुर्व्यवहार किया या धमकी दी और दोनों पक्षों के बीच हाथापाई होते-होते रह गई, तो निश्चित रूप से यह निंदनीय है और ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन तृणमूल सांसदों ने भी इसके विरोध के लिए जो तरीका अपनाया उसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। यह बेवजह नहीं है कि लोकसभा अध्यक्ष को सभी दलों से अपील करनी पड़ी कि वे अपने सदस्यों को सदन में अमर्यादित आचरण से बचने को कहें; सदस्यों का ऐसा व्यवहार सदन की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि विरोध के नाम पर सदन में जैसी गैर-जिम्मेदाराना हरकतें सामने आने लगी हैं, उससे आखिरकार विधायी कामकाज बाधित होते हैं और अहम फैसलों पर सार्थक बहस नहीं हो पाती। मुश्किल यह भी है कि संसद या विधानसभाओं में अमर्यादित आचरण करने वाले सांसदों-विधायकों के खिलाफ न तो उनकी पार्टियां कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करती हैं और न सदन की तरफ से कोई सख्त कदम उठाए जाते हैं। सवाल है कि सदन में मिर्ची  पाउडर छिड़क कर दहशत पैदा करने, सभापति या उपसभापति पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने या दस्तावेज छीनने, ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मियों को थप्पड़ मारने जैसी घटनाओं में कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए? जनप्रतिनिधियों का आचरण जनता के लिए नजीर होना चाहिए। लेकिन विडंबना है कि खुद हमारे नुमाइंदों को इस बात की फिक्र नहीं है कि उनके बर्ताव से जनता के बीच क्या संदेश जा रहा है। दरअसल, संसद और विधानसभाओं में बड़ी तादाद में आपराधिक मामलों के आरोपियों का पहुंचना भी एक बड़ी समस्या खड़ी कर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक इस बार लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या पिछली लोकसभा के मुकाबले ज्यादा है और हर तीसरा सांसद दागी है। इसके अलावा, दो-तिहाई से ज्यादा सांसद करोड़पति हैं। ऐसे सदस्यों से लोकतांत्रिक और परिपक्व राजनीतिक व्यवहार की कितनी अपेक्षा की जा सकती है! समय रहते सभी राजनीतिक दलों ने सदन की कार्यवाही और मर्यादा को लेकर ठोस कदम नहीं उठाए, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर उठाए जाते प्रश्न और गहरे होंगे।