Thursday 4 September 2014

नेता-प्रतिपक्ष की नियुक्ति


विपक्ष की जगह

जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि सदन में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। उनका यह निर्णय परिपाटी के अनुरूप भले हो, हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए ठीक नहीं है। फिर, वैधानिक दृष्टि से भी इस फैसले को पूरी तरह उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। लोकसभा में विपक्ष के नेता-पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा, लोकसभा अध्यक्ष ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले महाधिवक्ता की भी राय ली। खबर है कि सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिख कर कांग्रेस की मांग नामंजूर करने केपीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी की शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम दस फीसद सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के चौवालीस सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या के दस फीसद से कम है। सुमित्रा महाजन ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। रोहतगी ने भी पिछले दिनों यही तर्क पेश किया था कि नेता-प्रतिपक्ष के दर्जे के लिए कम से कम दस प्रतिशत सीटें होना जरूरी है। जाहिर है, महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता-प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम दस फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है, पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ अपूर्व बहुमत मिला था। तब भी विपक्ष की कोई पार्टी दस फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगू देशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी उपेंद्र को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई। तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? लेकिन कांग्रेस ने जो खराब मिसाल पेश की थी, भाजपा या मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष को उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए? नेता-प्रतिपक्ष का होना हमारी अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की साख के लिए भी जरूरी है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति में उसकी राय लेना अनिवार्य बनाया गया है। लोकपाल और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद सदस्यों के चयन में भी उसकी राय ली जानी है। नेता-प्रतिपक्ष का होना जहां हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए आवश्यक है, वहीं इन संस्थाओं में सत्तापक्ष की बेजा दखलंदाजी के अंदेशे से निपटने के लिए भी। लोकसभा अध्यक्ष ने अपने निर्णय की बाबत संसदीय परिपाटी का सहारा लिया है, मगर 1977 का नेता-प्रतिपक्ष से संबंधित कानून भी तो संसद से ही पारित हुआ था! फिर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के प्रावधान की अनदेखी क्यों कर दी गई? सुमित्रा महाजन ने कहा है कि सदन चाहे तो परिपाटी और नियम बदले जा सकते हैं। जरूर बदले जाने चाहिए। अच्छा होता कि अपना फरमान सुनाने से पहले उन्होंने इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई होती।

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सवाल और संदेश

जनसत्ता 25 अगस्त, 2014 : नेता-प्रतिपक्ष की बाबत लोकसभा अध्यक्ष के फैसले के कुछ ही दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय के रुख से इस मामले में नया मोड़ आ गया है। गौरतलब है कि पिछले दिनों लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने की मांग नामंजूर कर दी थी। उन्होंने अपने निर्णय का आधार संसदीय परिपाटी को बनाया, जिसके मुताबिक विपक्ष के नेता-पद की दावेदारी के लिए संबंधित दल के पास लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या का कम से कम दस फीसद होना जरूरी है। केंद्र के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की भी यही राय थी। परिपाटी की बात अपनी जगह सही है। पर लोकसभा अध्यक्ष ने दो बातों को नजरअंदाज कर दिया। एक, नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों के लिए 1977 में बने कानून को, जिसमें संबंधित सुविधाओं की खातिर न्यूनतम दस फीसद सीटों को नहीं, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को आधार मानने की बात कही गई है। दूसरे, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त जैसी अहम नियुक्तियों में नेता-प्रतिपक्ष की राय लेना अनिवार्य है। लोकपाल की चयन समिति और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद-सदस्यों के चुनाव में भी उसकी राय ली जानी है। लोकपाल के चयन को लेकर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने सरकार से पूछा है कि नेता-प्रतिपक्ष के बगैर लोकपाल की नियुक्ति कैसे होगी? अभी तक भाजपा परिपाटी की दुहाई देती आ रही थी। लेकिन अदालत के इस सवाल ने उसे बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सरकार का जवाब क्या होगा और अदालत उस पर अंतत: क्या फैसला सुनाएगी यह बाद की बात है। मगर अदालत की टिप्पणियों पर गौर करें तो उसके रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले हफ्ते मामले की सुनवाई के दौरान रोहतगी ने फिर यह दोहराया कि मावलंकर-नियम के अनुसार, नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी के लिए लोकसभा की दस फीसद सदस्य-संख्या होना जरूरी है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि केवल एक नियम या परिपाटी के आधार पर नेता-प्रतिपक्ष जैसी संस्था को दरकिनार नहीं किया जा सकता; संविधान में इस बारे में इसलिए कुछ नहीं कहा गया होगा, क्योंकि उस वक्त किसी ने यह नहीं सोचा कि ऐसी स्थिति आएगी। जाहिर है, अदालत ने नई स्थितियों में नए सिरे से सोचने की जरूरत रेखांकित की है। पिछले साल दिसंबर में पारित लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के मुताबिक अगर चयन समिति में कोई पद खाली हो तब भी लोकपाल की नियुक्ति अवैध नहीं होगी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद अब वैसी छूट लेना संभव नहीं होगा। अब हो सकता है सरकार नेता-प्रतिपक्ष के विकल्प की जगह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को लोकपाल चयन समिति में शामिल करने को तैयार हो जाए। क्या वैसे अन्य पदों पर होने वाली नियुक्तियों के लिए भी यही विकल्प अपनाया जाएगा? फिर, भविष्य में कोई और ऐसी संस्था गठित हुई जिसके स्वरूप या नेतृत्व को लेकर विपक्ष की राय जरूरी मानी गई, तो उसमें भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह अलग-अलग प्रावधान करने के बजाय नेता-प्रतिपक्ष की कसौटी ही बदलना बेहतर होगा। यह सही है कि दस फीसद सीटों की परिपाटी संसद ने तय की थी, मगर 1977 में बना कानून और लोकपाल और न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे कानून भी तो संसद से ही पारित हुए हैं। इसलिए परिपाटी की दलील को अब खींचते रहने का कोई औचित्य नहीं है।
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जरूरी है नेता विपक्ष
Aug 23, 2014,

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर जो सवाल उठाया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। इस प्रश्न के जरिए उसने एक अहम मुद्दे की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है जिसे सरकार को समझना चाहिए। उसने गवर्नमेंट से जानना चाहा है कि विपक्ष के नेता के बगैर वह लोकपाल कैसे चुनेगी। गौरतलब है कि लोकपाल के सदस्यों को चुनने वाली कमिटी में प्रधानमंत्री और अन्य लोगों के अलावा नेता विपक्ष को भी सदस्य बनाया जाना है। लेकिन वर्तमान लोकसभा में फिलहाल कोई विपक्ष का नेता नहीं है। दरअसल इस बार लोकसभा का समीकरण ही कुछ ऐसा उभरकर आया है, जिसमें इस पद के लिए किसी की ठोस दावेदारी नहीं बनती। कांग्रेस ने विपक्ष का सबसे बड़ा दल होने के नाते इस पर दावा जताया, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने उसकी मांग यह कहकर ठुकरा दी कि पार्टी की सदस्य संख्या कुल सदस्य संख्या के दस फीसदी से कम है। हालांकि कांग्रेस की दलील है कि 1977 के नेता विपक्ष, वेतन एवं भत्ता कानून के मुताबिक सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को यह पद मिल सकता है। इस तर्क के समर्थन और विरोध में बहस छिड़ गई है। हमारे संसदीय लोकतंत्र में विपक्षी नेता का पद काफी अहम है। वह जनता की ओर से सरकार पर दबाव बनाता है और एक तरह से उसे अपने दायित्वों की याद दिलाता रहता है। इसके अलावा वह लोकपाल, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआई के निदेशक जैसे पदों पर नियुक्ति में अपनी राय रखता है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि सत्ता पक्ष अपनी मनमानी न कर सके। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की चिंता समझी जा सकती है। उसका जोर बस इस पर है कि हमारे सिस्टम में निहित जनतांत्रिकता पर आंच न आए। भले ही तकनीकी आधार पर किसी को नेता विपक्ष न बनाया जाए लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका पहले की तरह बनी रहे। वह अपना कार्य पहले की तरह गंभीरतापूर्वक करता रहे। वैसे सरकार ने मन बना लिया है कि वह इन पदों की चयन प्रक्रिया में सबसे बड़े दल के नेता को शामिल करेगी। यानी इसमें कांग्रेस के नेता को जगह मिलेगी। बेहतर होगा कि नेता विपक्ष को लेकर तकनीकी लड़ाई लड़ने के बजाय कांग्रेस इस मंच का सार्थक इस्तेमाल करे और इन पदों पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति सुनिश्चित करे। एक जिम्मेदार लोकपाल नियुक्त करना समय की मांग है। एक अपोजिशन पार्टी के रूप में वह इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। अदालत के संदेश को सरकार को भी समझना चाहिए। उसे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे लगे कि वह असहमति की आवाज को कमजोर करना चाहती है। वह विपक्ष को संख्या बल से न आंक कर व्यवस्था में उसकी भूमिका का सम्मान करे। 
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मनोनीत सांसद सचिन तेंदुलकर और रेखा


संसद के सम्मान का सवाल

Fri, 29 Aug 2014 

राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत दो सदस्यों-सचिन तेंदुलकर और फिल्म अभिनेत्री रेखा की उपस्थिति का रिकॉर्ड समूचे देश के नागरिकों को चौंकाने वाला है। दो वर्ष पूर्व अपने मनोनयन के बाद से लेकर अब तक जहां सचिन तेंदुलकर सदन की कार्यवाही में महज तीन अवसरों पर हाजिर रहे वहीं रेखा का रिकॉर्ड उनसे थोड़ा बेहतर है, लेकिन वह भी इतनी ही समय अवधि में महज सात दिन उपस्थिति रहीं। चिंताजनक उपस्थिति रिकॉर्ड के अलावा जो बात हैरान करती है वह है गैरजिम्मेदाराना रवैया। संसद में खराब रिकॉर्ड अथवा कम उपस्थिति के बारे में जब सचिन से सवाल किया गया तो उन्होंने गुस्से का इजहार किया। एक व्यक्ति जिसके पास विजयवाड़ा में एक निजी मॉल का उद्घाटन करने के लिए समय है और जब संसद का सत्र चल रहा होता है तो वह राजधानी में दूसरे कार्यक्त्रमों में हिस्सा लेते हैं, लेकिन उनके पास संसद के बजट सत्र में हिस्सा लेने के लिए समय नहीं होता या उस तरफ ध्यान नहीं जाता। जब तेंदुलकर से इस बारे में सवाल पूछा जाता है तो वह मीडिया पर क्रुद्ध होते हैं और एक तरह से कहते हैं कि आप मुझसे यह सवाल कैसे पूछ सकते हैं? एक अवसर पर उन्होंने मीडिया को लेकर बयान दिया कि इन दिनों मीडिया का सभी बातों पर अपना अलग विचार होता है। उनके इस तरह के आचरण पर मास्टर ब्लास्टर से कुछ सवाल पूछने की आवश्यकता है।
आखिर मीडिया को सचिन तेंदुलकर के संसद में चिंताजनक उपस्थिति रिकॉर्ड के बारे में अपनी राय क्यों नहीं बनानी चाहिए? उनको मीडिया से तब कोई दिक्कत नहीं हुई जब उन्हें देश के महानतम व्यक्ति अथवा प्रतीक के तौर पर सराहा गया, जिस कारण सरकार ने उन्हें भारत रत्‍‌न पुरस्कार से सम्मानित किया और यहां तक कि राज्यसभा का सदस्य भी बनाया, लेकिन आज जब उनसे सवाल पूछा जा रहा है तो आप मीडिया की वैधता अथवा उसके अधिकार पर सवाल उठा रहे हैं? संभवत: उनको इस सबका अंदाजा नहीं था, लेकिन सरकार ने राज्यसभा के सदस्य के तौर पर आपको मनोनीत करने के लिए निश्चित ही संवैधानिक प्रावधानों पर अतिरिक्त जोर दिया। अनुच्छेद 80 कहता है कि राच्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत अधिकतम 12 सदस्य हो सकते हैं। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य अपने क्षेत्र का विशेष ज्ञान रखने वाले विशेषज्ञ अथवा व्यावहारिक अनुभव रखने वाले व्यक्ति हो सकते हैं, जिनमें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा का क्षेत्र हो सकता है।
इस सूची में खिलाड़ियों के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। बावजूद इसके कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार तेंदुलकर को मनोनीत करने के लिए दायरे से बाहर गई। ऐसा इसलिए, क्योंकि क्त्रिकेट में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए वह 2014 के आम चुनावों में अपनी छवि में सुधार करना चाहती थी अथवा फायदा पाना चाहती थी। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ और कांग्रेस पार्टी को इस वर्ष सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। दूसरी बात यह कि जिस दिन तेंदुलकर ने पहली बार संसद में प्रवेश किया तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को याद किया। उस दिन जो व्यक्ति उनके साये की तरह रहे वह थे तत्कालीन सरकार में केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला। संभवत: भारत रत्न का सम्मान देने के लिए वह उनको धन्यवाद दे सकते थे। तेंदुलकर ने स्वीकार किया कि वह इसके लिए केवल सोनिया गांधी के प्रति आभारी थे, न कि भारत सरकार के। यही कारण था कि संसद में प्रवेश के पहले दिन राजीव शुक्ला और सोनिया गांधी के अतिरिक्त अन्य कोई भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं था। उन्हें याद नहीं रहा कि समूचे राजनीतिक जगत ने उनकी सराहना की और यह कि वह पूरे देश के प्रतीक हैं, जिसे अपने आचरण के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए। सोनिया गांधी सरकार की वास्तविक मुखिया थीं, इसलिए उनके अतिरिक्त लालकृष्ण आडवाणी, लालू प्रसाद यादव, मायावती, प्रकाश करात, चंद्रबाबू नायडू आदि की परवाह नहीं की गई। संभवत: इसी कारण देश की जनता की तरफ से पूछे जा रहे वैध सवालों पर राजीव शुक्ला तेंदुलकर का बचाव करने वाले वकील के तौर पर व्यवहार कर रहे हैं और इसके लिए दलीलें पेश कर रहे हैं।
हालांकि उनका यह दावा हास्यास्पद प्रतीत होता है कि बावजूद तमाम व्यस्तताओं के सचिन तेंदुलकर तीन दिन संसद में उपस्थित हुए। उनके मुताबिक सचिन ने नियमों का कोई उल्लंघन नहीं किया और यह नहीं कहा जा सकता कि वह लगातार 60 दिनों तक अनुपस्थित रहे। हालांकि यह दलील बहुत ही लचर थी। जब राच्यसभा के पीठासीन अधिकारी ने सदन से किसी की अनुपस्थिति को लेकर सवाल पूछा तो नहीं की तेज आवाज सुनाई दी। भारत रत्‍‌न सम्मान पाए व्यक्ति के लिए यह एक दुखद बात है कि उनके पक्ष में सिर्फ राजीव शुक्ला नजर आएं और उच्च सदन के शेष सभी लोग सार्वजनिक तौर पर सवाल उठाएं। यदि हम मुद्दे की बात करें तो उच्च सदन में कला, विज्ञान, साहित्य और समाज सेवा से लोगों को मनोनीत करने का आशय यही था कि इससे चर्चा का स्तर बढ़ेगा और मूल्य संव‌र्द्धन होगा, लेकिन क्या तेंदुलकर इसके प्रति जागरूक अथवा चैतन्य हैं? एक अगस्त को बजट सत्र के मध्य में वह एक निजी क्षेत्र के मॉल का उद्घाटन करने विजयवाड़ा गए, जो तकरीबन 125 करोड़ रुपये में बनाया गया था। राच्यसभा में मनोनयन के दो वषरें में उन्होंने कभी भी मुंह नहीं खोला और न ही कभी कोई प्रश्न पूछा। फिर राच्यसभा में उन्होंने यह सीट क्यों ले रखी है? अभी तक का उनका व्यवहार गैर जिम्मेदाराना रहा है। यह स्थिति बदलनी चाहिए।
सचिन तेंदुलकर के मनोनयन के दूसरे दिन जावेद अख्तर ने कहा था कि राच्यसभा में मनोनयन कोई ट्रॉफी नहीं है, जिसे आप घर में रखते हैं। यह देश की 1.3 अरब आबादी के प्रति एक बड़ी जिम्मेदारी है। वह एक महान क्त्रिकेटर हो सकते हैं, लेकिन कानून अथवा नियमों से ऊपर नहीं हैं। यदि संसदीय कामों के लिए उनके पास समय नहीं है तो उनको यह नामांकन स्वीकार नहीं करना चाहिए था। इसके लिए कोई बहाना नहीं हो सकता। एक इनवर्टर के प्रचार विज्ञापन में वह कहते हैं कि यह भरोसेमंद बैक-अप प्रदान करता है। दुर्भाग्य से संसद में भाग लेने में विफल रहने वाले सदस्यों के लिए हमारा संविधान कोई बैक-अप प्रदान नहीं करता। इसलिए उनके पास एक ही सम्मानजनक विकल्प इस्तीफा देने का है। ऐसा होने पर सरकार किसी ऐसे व्यक्ति को मनोनीत कर सकती है जो संसद का सम्मान करता हो, अपनी संसदीय जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाए और देश की जनता का ध्यान रखे।
[लेखक ए. सूर्यप्रकाश, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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रास्ता रोकती राज्यसभा

Tuesday,Aug 12,2014

पिछले दिनों संसद में और उसके बाहर भी यह सवाल उठा कि मनोनीत सांसद सचिन तेंदुलकर और रेखा लंबे समय से राज्यसभा से गैरहाजिर क्यों हैं? कुछ ने उनकी गैरहाजिरी पर असंतोष प्रकट किया तो कुछ ने यह अपेक्षा जताई कि उन्हें सदन में आकर अपने विचारों से देश को अवगत कराना चाहिए। ऐसी अपेक्षा करने वालों का कहना था कि अगर ये दोनों सांसद किसी मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं तो उसका कहीं च्यादा असर पड़ेगा। सचिन और रेखा सरीखे मनोनीत सदस्यों से यह अपेक्षा अस्वाभाविक नहीं कि वे समय-समय पर राच्यसभा में न केवल नजर आएं, बल्कि बहस में भी भाग लें अथवा किसी मसले पर अपने विचार रखें, लेकिन अगर वे ऐसा नहीं करते तो ऐसी प्रतीति नहीं कराई जानी चाहिए कि उनके बगैर राच्यसभा का काम रुका जा रहा है। वैसे भी ये ऐसी शख्सियत हैं जो किसी भी मंच पर अपने विचार प्रकट करें उन्हें महत्ता मिलेगी। आजकल तो ट्विटर-फेसबुक पर व्यक्त विचार भी सुर्खियां बन जाते हैं। स्पष्ट है कि उनके लिए राच्यसभा में हाजिरी लगाना इतना भी जरूरी नहीं कि उसके लिए हाय-हाय की जाए। हाय-हाय तो इस पर की जानी चाहिए कि संसद में जो काम होना चाहिए वह क्यों नहीं हो पा रहा है? संसद का काम है राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और जरूरी कानून बनाना अथवा उनमें संशोधन-परिवर्तन करना। दुर्भाग्य से संसद अपने इसी मूल काम को करने में आनाकानी करती दिखती है और इसका ताजा प्रमाण है बीमा संशोधन विधेयक पर सत्तापक्ष-विपक्ष में टकराव।
बीमा संशोधन विधेयक सबसे पहले 2008 में संसद में पेश किया गया था। चूंकि विपक्ष को उस पर आपत्तिथी इसलिए उसे संसद की स्थायी समिति को सौंप दिया गया। संसदीय समिति ने कई संशोधन सुझाए, लेकिन पर्याप्त समर्थन के अभाव में मनमोहन सरकार इस विधेयक को पारित कराने में समर्थ नहीं हो सकी। जिस भाजपा ने कभी इस विधेयक का विरोध किया था वही अब सत्ता में आने के बाद उसे पारित कराना चाह रही है। उसका तर्क है कि यह तो चिदंबरम द्वारा तैयार किया गया विधेयक है। बावजूद इसके कांग्रेस उसे समर्थन देने को तैयार नहीं। क्यों नहीं तैयार, इसका ठीक-ठीक जवाब किसी के पास नहीं। बीमा विधेयक पक्ष-विपक्ष, दोनों की पोल खोलने के साथ यह भी बता रहा है कि हमारे राजनीतिक दल किस तरह मौके के मुताबिक अपना रवैया बदल लेते हैं, फिर भी उनके पास हमेशा यह दलील होती है कि हम देशहित में ऐसा कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि वे अक्सर विरोध के लिए विरोध के रास्ते पर चलते हुए देशहित को आंच दिखा रहे होते हैं। आज भाजपा के पास इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं कि उसने विपक्ष में रहते समय बीमा विधेयक का विरोध क्यों किया था? जाहिर है कि जनता इसी नतीजे पर पहुंचेगी कि पहले भाजपा संप्रग सरकार की राह में रोड़े अटका रही थी और अब कांग्रेस राजग सरकार का रास्ता रोक रही है। यह सब काम उस संसद में हो रहा है जिसे महान, पवित्र, लोकतंत्र का मंदिर वगैरह कहा जाता है।
राजनीतिक दल जब विपक्ष में चले जाते हैं तब उनकी ओर से देश को यह भरोसा दिलाया जाता है कि वे सत्तापक्ष को रचनात्मक सहयोग देने से पीछे नहीं हटेंगे, लेकिन वे इस या उस बहाने सत्तापक्ष के काम में टांग अड़ाते हैं। वे केवल उन्हीं मामलों में सरकार का सहयोग करते हैं जिनमें खिलाफ खड़े होने में उन्हें अपने लिए खतरा नजर आता है। इसी कारण खाद्य सुरक्षा विधेयक बहुत आसानी से कानून बन गया। कोई भी दल खुद को इस विचार का विरोधी नहीं दिखाना चाहता कि सभी को भरपेट भोजन मिले। जो लोकपाल विधेयक 42-43 साल संसद के भीतर-बाहर धक्के खाता रहा वह यकायक महज इसलिए कानून नहीं बना, क्योंकि सभी दलों को वह रास आ गया था। वह तो इसलिए कानून का रूप ले सका, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत ने सभी दलों को डरा दिया था। चूंकि आम जनता को यह पता नहीं कि बीमा विधेयक के पारित होने-न होने से उसकी सेहत पर क्या असर पड़ रहा है इसलिए राजनीतिक दल उसे फुटबॉल बनाए हुए हैं।
कांग्रेस और कुछ अन्य दलों का मोदी सरकार के प्रति जैसा रुख-रवैया है उससे यही प्रकट हो रहा है कि वे राच्यसभा में उसकी नाक में दम ही नहीं करेंगे, बल्कि शासन करने के उसके अधिकार में अड़ंगा भी लगाएंगे। विपक्षी दलों की रचनात्मकता किस तरह सरकार की मुश्किलें बढ़ाने में खर्च होती है, इसका संकेत कुछ दलों की इस कोशिश से मिलता है कि सरकार के लिए बीमा विधेयक पर संसद का संयुक्त सत्र बुलाना भी मुश्किल हो जाए। यह सहज-स्वाभाविक है कि किसी विषय-विधेयक पर राच्यसभा का दृष्टिकोण लोकसभा से भिन्न हो, लेकिन इसके आधार पर वह सत्तापक्ष के शासन करने के अधिकार को बाधित नहीं कर सकती। मोदी सरकार को बीमा विधेयक के साथ-साथ श्रम कानूनों में सुधार संबंधी विधेयकों पर भी राच्यसभा में विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में भी संशोधन चाह रही है, लेकिन इस पर भी कांग्रेस का सुर बेसुरा है। मोदी सरकार के लिए जो काम कर पाना मुश्किल हो रहा है वह राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने करीब-करीब कर दिखाया है। उसने भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए राजस्थान राजमार्ग अधिनियम में संशोधन का विधेयक पारित करा लिया है। अब राजस्थान में राजमागरें के लिए 81 दिन में भूमि का अधिग्रहण हो सकता है। केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत इस काम में 150 दिन लगेंगे। राजस्थान सरकार ने श्रम सुधारों से संबंधित चार संशोधन विधेयक भी पारित करा लिए हैं। इन सभी पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने भर शेष हैं। वसुंधरा राजे यह सब इतनी आसानी से इसलिए कर सकीं, क्योंकि विधानसभा में उन्हें प्रबल बहुमत प्राप्त है और राजस्थान में विधान परिषद है नहीं। बेहतर हो कि राच्यसभा सचिन और रेखा की गैरहाजिरी पर चिंतित होने के बजाय देश की चिंताओं का समाधान करने के बारे में सोचे।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]