Thursday 4 September 2014

नेता-प्रतिपक्ष की नियुक्ति


विपक्ष की जगह

जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि सदन में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। उनका यह निर्णय परिपाटी के अनुरूप भले हो, हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए ठीक नहीं है। फिर, वैधानिक दृष्टि से भी इस फैसले को पूरी तरह उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। लोकसभा में विपक्ष के नेता-पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा, लोकसभा अध्यक्ष ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले महाधिवक्ता की भी राय ली। खबर है कि सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिख कर कांग्रेस की मांग नामंजूर करने केपीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी की शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम दस फीसद सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के चौवालीस सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या के दस फीसद से कम है। सुमित्रा महाजन ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। रोहतगी ने भी पिछले दिनों यही तर्क पेश किया था कि नेता-प्रतिपक्ष के दर्जे के लिए कम से कम दस प्रतिशत सीटें होना जरूरी है। जाहिर है, महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता-प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम दस फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है, पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ अपूर्व बहुमत मिला था। तब भी विपक्ष की कोई पार्टी दस फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगू देशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी उपेंद्र को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई। तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? लेकिन कांग्रेस ने जो खराब मिसाल पेश की थी, भाजपा या मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष को उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए? नेता-प्रतिपक्ष का होना हमारी अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की साख के लिए भी जरूरी है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति में उसकी राय लेना अनिवार्य बनाया गया है। लोकपाल और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद सदस्यों के चयन में भी उसकी राय ली जानी है। नेता-प्रतिपक्ष का होना जहां हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए आवश्यक है, वहीं इन संस्थाओं में सत्तापक्ष की बेजा दखलंदाजी के अंदेशे से निपटने के लिए भी। लोकसभा अध्यक्ष ने अपने निर्णय की बाबत संसदीय परिपाटी का सहारा लिया है, मगर 1977 का नेता-प्रतिपक्ष से संबंधित कानून भी तो संसद से ही पारित हुआ था! फिर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के प्रावधान की अनदेखी क्यों कर दी गई? सुमित्रा महाजन ने कहा है कि सदन चाहे तो परिपाटी और नियम बदले जा सकते हैं। जरूर बदले जाने चाहिए। अच्छा होता कि अपना फरमान सुनाने से पहले उन्होंने इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई होती।

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सवाल और संदेश

जनसत्ता 25 अगस्त, 2014 : नेता-प्रतिपक्ष की बाबत लोकसभा अध्यक्ष के फैसले के कुछ ही दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय के रुख से इस मामले में नया मोड़ आ गया है। गौरतलब है कि पिछले दिनों लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने की मांग नामंजूर कर दी थी। उन्होंने अपने निर्णय का आधार संसदीय परिपाटी को बनाया, जिसके मुताबिक विपक्ष के नेता-पद की दावेदारी के लिए संबंधित दल के पास लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या का कम से कम दस फीसद होना जरूरी है। केंद्र के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की भी यही राय थी। परिपाटी की बात अपनी जगह सही है। पर लोकसभा अध्यक्ष ने दो बातों को नजरअंदाज कर दिया। एक, नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों के लिए 1977 में बने कानून को, जिसमें संबंधित सुविधाओं की खातिर न्यूनतम दस फीसद सीटों को नहीं, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को आधार मानने की बात कही गई है। दूसरे, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त जैसी अहम नियुक्तियों में नेता-प्रतिपक्ष की राय लेना अनिवार्य है। लोकपाल की चयन समिति और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद-सदस्यों के चुनाव में भी उसकी राय ली जानी है। लोकपाल के चयन को लेकर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने सरकार से पूछा है कि नेता-प्रतिपक्ष के बगैर लोकपाल की नियुक्ति कैसे होगी? अभी तक भाजपा परिपाटी की दुहाई देती आ रही थी। लेकिन अदालत के इस सवाल ने उसे बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सरकार का जवाब क्या होगा और अदालत उस पर अंतत: क्या फैसला सुनाएगी यह बाद की बात है। मगर अदालत की टिप्पणियों पर गौर करें तो उसके रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले हफ्ते मामले की सुनवाई के दौरान रोहतगी ने फिर यह दोहराया कि मावलंकर-नियम के अनुसार, नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी के लिए लोकसभा की दस फीसद सदस्य-संख्या होना जरूरी है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि केवल एक नियम या परिपाटी के आधार पर नेता-प्रतिपक्ष जैसी संस्था को दरकिनार नहीं किया जा सकता; संविधान में इस बारे में इसलिए कुछ नहीं कहा गया होगा, क्योंकि उस वक्त किसी ने यह नहीं सोचा कि ऐसी स्थिति आएगी। जाहिर है, अदालत ने नई स्थितियों में नए सिरे से सोचने की जरूरत रेखांकित की है। पिछले साल दिसंबर में पारित लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के मुताबिक अगर चयन समिति में कोई पद खाली हो तब भी लोकपाल की नियुक्ति अवैध नहीं होगी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद अब वैसी छूट लेना संभव नहीं होगा। अब हो सकता है सरकार नेता-प्रतिपक्ष के विकल्प की जगह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को लोकपाल चयन समिति में शामिल करने को तैयार हो जाए। क्या वैसे अन्य पदों पर होने वाली नियुक्तियों के लिए भी यही विकल्प अपनाया जाएगा? फिर, भविष्य में कोई और ऐसी संस्था गठित हुई जिसके स्वरूप या नेतृत्व को लेकर विपक्ष की राय जरूरी मानी गई, तो उसमें भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह अलग-अलग प्रावधान करने के बजाय नेता-प्रतिपक्ष की कसौटी ही बदलना बेहतर होगा। यह सही है कि दस फीसद सीटों की परिपाटी संसद ने तय की थी, मगर 1977 में बना कानून और लोकपाल और न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे कानून भी तो संसद से ही पारित हुए हैं। इसलिए परिपाटी की दलील को अब खींचते रहने का कोई औचित्य नहीं है।
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जरूरी है नेता विपक्ष
Aug 23, 2014,

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर जो सवाल उठाया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। इस प्रश्न के जरिए उसने एक अहम मुद्दे की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है जिसे सरकार को समझना चाहिए। उसने गवर्नमेंट से जानना चाहा है कि विपक्ष के नेता के बगैर वह लोकपाल कैसे चुनेगी। गौरतलब है कि लोकपाल के सदस्यों को चुनने वाली कमिटी में प्रधानमंत्री और अन्य लोगों के अलावा नेता विपक्ष को भी सदस्य बनाया जाना है। लेकिन वर्तमान लोकसभा में फिलहाल कोई विपक्ष का नेता नहीं है। दरअसल इस बार लोकसभा का समीकरण ही कुछ ऐसा उभरकर आया है, जिसमें इस पद के लिए किसी की ठोस दावेदारी नहीं बनती। कांग्रेस ने विपक्ष का सबसे बड़ा दल होने के नाते इस पर दावा जताया, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने उसकी मांग यह कहकर ठुकरा दी कि पार्टी की सदस्य संख्या कुल सदस्य संख्या के दस फीसदी से कम है। हालांकि कांग्रेस की दलील है कि 1977 के नेता विपक्ष, वेतन एवं भत्ता कानून के मुताबिक सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को यह पद मिल सकता है। इस तर्क के समर्थन और विरोध में बहस छिड़ गई है। हमारे संसदीय लोकतंत्र में विपक्षी नेता का पद काफी अहम है। वह जनता की ओर से सरकार पर दबाव बनाता है और एक तरह से उसे अपने दायित्वों की याद दिलाता रहता है। इसके अलावा वह लोकपाल, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआई के निदेशक जैसे पदों पर नियुक्ति में अपनी राय रखता है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि सत्ता पक्ष अपनी मनमानी न कर सके। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की चिंता समझी जा सकती है। उसका जोर बस इस पर है कि हमारे सिस्टम में निहित जनतांत्रिकता पर आंच न आए। भले ही तकनीकी आधार पर किसी को नेता विपक्ष न बनाया जाए लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका पहले की तरह बनी रहे। वह अपना कार्य पहले की तरह गंभीरतापूर्वक करता रहे। वैसे सरकार ने मन बना लिया है कि वह इन पदों की चयन प्रक्रिया में सबसे बड़े दल के नेता को शामिल करेगी। यानी इसमें कांग्रेस के नेता को जगह मिलेगी। बेहतर होगा कि नेता विपक्ष को लेकर तकनीकी लड़ाई लड़ने के बजाय कांग्रेस इस मंच का सार्थक इस्तेमाल करे और इन पदों पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति सुनिश्चित करे। एक जिम्मेदार लोकपाल नियुक्त करना समय की मांग है। एक अपोजिशन पार्टी के रूप में वह इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। अदालत के संदेश को सरकार को भी समझना चाहिए। उसे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे लगे कि वह असहमति की आवाज को कमजोर करना चाहती है। वह विपक्ष को संख्या बल से न आंक कर व्यवस्था में उसकी भूमिका का सम्मान करे। 
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मनोनीत सांसद सचिन तेंदुलकर और रेखा


संसद के सम्मान का सवाल

Fri, 29 Aug 2014 

राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत दो सदस्यों-सचिन तेंदुलकर और फिल्म अभिनेत्री रेखा की उपस्थिति का रिकॉर्ड समूचे देश के नागरिकों को चौंकाने वाला है। दो वर्ष पूर्व अपने मनोनयन के बाद से लेकर अब तक जहां सचिन तेंदुलकर सदन की कार्यवाही में महज तीन अवसरों पर हाजिर रहे वहीं रेखा का रिकॉर्ड उनसे थोड़ा बेहतर है, लेकिन वह भी इतनी ही समय अवधि में महज सात दिन उपस्थिति रहीं। चिंताजनक उपस्थिति रिकॉर्ड के अलावा जो बात हैरान करती है वह है गैरजिम्मेदाराना रवैया। संसद में खराब रिकॉर्ड अथवा कम उपस्थिति के बारे में जब सचिन से सवाल किया गया तो उन्होंने गुस्से का इजहार किया। एक व्यक्ति जिसके पास विजयवाड़ा में एक निजी मॉल का उद्घाटन करने के लिए समय है और जब संसद का सत्र चल रहा होता है तो वह राजधानी में दूसरे कार्यक्त्रमों में हिस्सा लेते हैं, लेकिन उनके पास संसद के बजट सत्र में हिस्सा लेने के लिए समय नहीं होता या उस तरफ ध्यान नहीं जाता। जब तेंदुलकर से इस बारे में सवाल पूछा जाता है तो वह मीडिया पर क्रुद्ध होते हैं और एक तरह से कहते हैं कि आप मुझसे यह सवाल कैसे पूछ सकते हैं? एक अवसर पर उन्होंने मीडिया को लेकर बयान दिया कि इन दिनों मीडिया का सभी बातों पर अपना अलग विचार होता है। उनके इस तरह के आचरण पर मास्टर ब्लास्टर से कुछ सवाल पूछने की आवश्यकता है।
आखिर मीडिया को सचिन तेंदुलकर के संसद में चिंताजनक उपस्थिति रिकॉर्ड के बारे में अपनी राय क्यों नहीं बनानी चाहिए? उनको मीडिया से तब कोई दिक्कत नहीं हुई जब उन्हें देश के महानतम व्यक्ति अथवा प्रतीक के तौर पर सराहा गया, जिस कारण सरकार ने उन्हें भारत रत्‍‌न पुरस्कार से सम्मानित किया और यहां तक कि राज्यसभा का सदस्य भी बनाया, लेकिन आज जब उनसे सवाल पूछा जा रहा है तो आप मीडिया की वैधता अथवा उसके अधिकार पर सवाल उठा रहे हैं? संभवत: उनको इस सबका अंदाजा नहीं था, लेकिन सरकार ने राज्यसभा के सदस्य के तौर पर आपको मनोनीत करने के लिए निश्चित ही संवैधानिक प्रावधानों पर अतिरिक्त जोर दिया। अनुच्छेद 80 कहता है कि राच्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत अधिकतम 12 सदस्य हो सकते हैं। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य अपने क्षेत्र का विशेष ज्ञान रखने वाले विशेषज्ञ अथवा व्यावहारिक अनुभव रखने वाले व्यक्ति हो सकते हैं, जिनमें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा का क्षेत्र हो सकता है।
इस सूची में खिलाड़ियों के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। बावजूद इसके कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार तेंदुलकर को मनोनीत करने के लिए दायरे से बाहर गई। ऐसा इसलिए, क्योंकि क्त्रिकेट में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए वह 2014 के आम चुनावों में अपनी छवि में सुधार करना चाहती थी अथवा फायदा पाना चाहती थी। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ और कांग्रेस पार्टी को इस वर्ष सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। दूसरी बात यह कि जिस दिन तेंदुलकर ने पहली बार संसद में प्रवेश किया तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को याद किया। उस दिन जो व्यक्ति उनके साये की तरह रहे वह थे तत्कालीन सरकार में केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला। संभवत: भारत रत्न का सम्मान देने के लिए वह उनको धन्यवाद दे सकते थे। तेंदुलकर ने स्वीकार किया कि वह इसके लिए केवल सोनिया गांधी के प्रति आभारी थे, न कि भारत सरकार के। यही कारण था कि संसद में प्रवेश के पहले दिन राजीव शुक्ला और सोनिया गांधी के अतिरिक्त अन्य कोई भी उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं था। उन्हें याद नहीं रहा कि समूचे राजनीतिक जगत ने उनकी सराहना की और यह कि वह पूरे देश के प्रतीक हैं, जिसे अपने आचरण के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए। सोनिया गांधी सरकार की वास्तविक मुखिया थीं, इसलिए उनके अतिरिक्त लालकृष्ण आडवाणी, लालू प्रसाद यादव, मायावती, प्रकाश करात, चंद्रबाबू नायडू आदि की परवाह नहीं की गई। संभवत: इसी कारण देश की जनता की तरफ से पूछे जा रहे वैध सवालों पर राजीव शुक्ला तेंदुलकर का बचाव करने वाले वकील के तौर पर व्यवहार कर रहे हैं और इसके लिए दलीलें पेश कर रहे हैं।
हालांकि उनका यह दावा हास्यास्पद प्रतीत होता है कि बावजूद तमाम व्यस्तताओं के सचिन तेंदुलकर तीन दिन संसद में उपस्थित हुए। उनके मुताबिक सचिन ने नियमों का कोई उल्लंघन नहीं किया और यह नहीं कहा जा सकता कि वह लगातार 60 दिनों तक अनुपस्थित रहे। हालांकि यह दलील बहुत ही लचर थी। जब राच्यसभा के पीठासीन अधिकारी ने सदन से किसी की अनुपस्थिति को लेकर सवाल पूछा तो नहीं की तेज आवाज सुनाई दी। भारत रत्‍‌न सम्मान पाए व्यक्ति के लिए यह एक दुखद बात है कि उनके पक्ष में सिर्फ राजीव शुक्ला नजर आएं और उच्च सदन के शेष सभी लोग सार्वजनिक तौर पर सवाल उठाएं। यदि हम मुद्दे की बात करें तो उच्च सदन में कला, विज्ञान, साहित्य और समाज सेवा से लोगों को मनोनीत करने का आशय यही था कि इससे चर्चा का स्तर बढ़ेगा और मूल्य संव‌र्द्धन होगा, लेकिन क्या तेंदुलकर इसके प्रति जागरूक अथवा चैतन्य हैं? एक अगस्त को बजट सत्र के मध्य में वह एक निजी क्षेत्र के मॉल का उद्घाटन करने विजयवाड़ा गए, जो तकरीबन 125 करोड़ रुपये में बनाया गया था। राच्यसभा में मनोनयन के दो वषरें में उन्होंने कभी भी मुंह नहीं खोला और न ही कभी कोई प्रश्न पूछा। फिर राच्यसभा में उन्होंने यह सीट क्यों ले रखी है? अभी तक का उनका व्यवहार गैर जिम्मेदाराना रहा है। यह स्थिति बदलनी चाहिए।
सचिन तेंदुलकर के मनोनयन के दूसरे दिन जावेद अख्तर ने कहा था कि राच्यसभा में मनोनयन कोई ट्रॉफी नहीं है, जिसे आप घर में रखते हैं। यह देश की 1.3 अरब आबादी के प्रति एक बड़ी जिम्मेदारी है। वह एक महान क्त्रिकेटर हो सकते हैं, लेकिन कानून अथवा नियमों से ऊपर नहीं हैं। यदि संसदीय कामों के लिए उनके पास समय नहीं है तो उनको यह नामांकन स्वीकार नहीं करना चाहिए था। इसके लिए कोई बहाना नहीं हो सकता। एक इनवर्टर के प्रचार विज्ञापन में वह कहते हैं कि यह भरोसेमंद बैक-अप प्रदान करता है। दुर्भाग्य से संसद में भाग लेने में विफल रहने वाले सदस्यों के लिए हमारा संविधान कोई बैक-अप प्रदान नहीं करता। इसलिए उनके पास एक ही सम्मानजनक विकल्प इस्तीफा देने का है। ऐसा होने पर सरकार किसी ऐसे व्यक्ति को मनोनीत कर सकती है जो संसद का सम्मान करता हो, अपनी संसदीय जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाए और देश की जनता का ध्यान रखे।
[लेखक ए. सूर्यप्रकाश, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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रास्ता रोकती राज्यसभा

Tuesday,Aug 12,2014

पिछले दिनों संसद में और उसके बाहर भी यह सवाल उठा कि मनोनीत सांसद सचिन तेंदुलकर और रेखा लंबे समय से राज्यसभा से गैरहाजिर क्यों हैं? कुछ ने उनकी गैरहाजिरी पर असंतोष प्रकट किया तो कुछ ने यह अपेक्षा जताई कि उन्हें सदन में आकर अपने विचारों से देश को अवगत कराना चाहिए। ऐसी अपेक्षा करने वालों का कहना था कि अगर ये दोनों सांसद किसी मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं तो उसका कहीं च्यादा असर पड़ेगा। सचिन और रेखा सरीखे मनोनीत सदस्यों से यह अपेक्षा अस्वाभाविक नहीं कि वे समय-समय पर राच्यसभा में न केवल नजर आएं, बल्कि बहस में भी भाग लें अथवा किसी मसले पर अपने विचार रखें, लेकिन अगर वे ऐसा नहीं करते तो ऐसी प्रतीति नहीं कराई जानी चाहिए कि उनके बगैर राच्यसभा का काम रुका जा रहा है। वैसे भी ये ऐसी शख्सियत हैं जो किसी भी मंच पर अपने विचार प्रकट करें उन्हें महत्ता मिलेगी। आजकल तो ट्विटर-फेसबुक पर व्यक्त विचार भी सुर्खियां बन जाते हैं। स्पष्ट है कि उनके लिए राच्यसभा में हाजिरी लगाना इतना भी जरूरी नहीं कि उसके लिए हाय-हाय की जाए। हाय-हाय तो इस पर की जानी चाहिए कि संसद में जो काम होना चाहिए वह क्यों नहीं हो पा रहा है? संसद का काम है राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विचार-विमर्श करना और जरूरी कानून बनाना अथवा उनमें संशोधन-परिवर्तन करना। दुर्भाग्य से संसद अपने इसी मूल काम को करने में आनाकानी करती दिखती है और इसका ताजा प्रमाण है बीमा संशोधन विधेयक पर सत्तापक्ष-विपक्ष में टकराव।
बीमा संशोधन विधेयक सबसे पहले 2008 में संसद में पेश किया गया था। चूंकि विपक्ष को उस पर आपत्तिथी इसलिए उसे संसद की स्थायी समिति को सौंप दिया गया। संसदीय समिति ने कई संशोधन सुझाए, लेकिन पर्याप्त समर्थन के अभाव में मनमोहन सरकार इस विधेयक को पारित कराने में समर्थ नहीं हो सकी। जिस भाजपा ने कभी इस विधेयक का विरोध किया था वही अब सत्ता में आने के बाद उसे पारित कराना चाह रही है। उसका तर्क है कि यह तो चिदंबरम द्वारा तैयार किया गया विधेयक है। बावजूद इसके कांग्रेस उसे समर्थन देने को तैयार नहीं। क्यों नहीं तैयार, इसका ठीक-ठीक जवाब किसी के पास नहीं। बीमा विधेयक पक्ष-विपक्ष, दोनों की पोल खोलने के साथ यह भी बता रहा है कि हमारे राजनीतिक दल किस तरह मौके के मुताबिक अपना रवैया बदल लेते हैं, फिर भी उनके पास हमेशा यह दलील होती है कि हम देशहित में ऐसा कर रहे हैं। सच्चाई यह है कि वे अक्सर विरोध के लिए विरोध के रास्ते पर चलते हुए देशहित को आंच दिखा रहे होते हैं। आज भाजपा के पास इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं कि उसने विपक्ष में रहते समय बीमा विधेयक का विरोध क्यों किया था? जाहिर है कि जनता इसी नतीजे पर पहुंचेगी कि पहले भाजपा संप्रग सरकार की राह में रोड़े अटका रही थी और अब कांग्रेस राजग सरकार का रास्ता रोक रही है। यह सब काम उस संसद में हो रहा है जिसे महान, पवित्र, लोकतंत्र का मंदिर वगैरह कहा जाता है।
राजनीतिक दल जब विपक्ष में चले जाते हैं तब उनकी ओर से देश को यह भरोसा दिलाया जाता है कि वे सत्तापक्ष को रचनात्मक सहयोग देने से पीछे नहीं हटेंगे, लेकिन वे इस या उस बहाने सत्तापक्ष के काम में टांग अड़ाते हैं। वे केवल उन्हीं मामलों में सरकार का सहयोग करते हैं जिनमें खिलाफ खड़े होने में उन्हें अपने लिए खतरा नजर आता है। इसी कारण खाद्य सुरक्षा विधेयक बहुत आसानी से कानून बन गया। कोई भी दल खुद को इस विचार का विरोधी नहीं दिखाना चाहता कि सभी को भरपेट भोजन मिले। जो लोकपाल विधेयक 42-43 साल संसद के भीतर-बाहर धक्के खाता रहा वह यकायक महज इसलिए कानून नहीं बना, क्योंकि सभी दलों को वह रास आ गया था। वह तो इसलिए कानून का रूप ले सका, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत ने सभी दलों को डरा दिया था। चूंकि आम जनता को यह पता नहीं कि बीमा विधेयक के पारित होने-न होने से उसकी सेहत पर क्या असर पड़ रहा है इसलिए राजनीतिक दल उसे फुटबॉल बनाए हुए हैं।
कांग्रेस और कुछ अन्य दलों का मोदी सरकार के प्रति जैसा रुख-रवैया है उससे यही प्रकट हो रहा है कि वे राच्यसभा में उसकी नाक में दम ही नहीं करेंगे, बल्कि शासन करने के उसके अधिकार में अड़ंगा भी लगाएंगे। विपक्षी दलों की रचनात्मकता किस तरह सरकार की मुश्किलें बढ़ाने में खर्च होती है, इसका संकेत कुछ दलों की इस कोशिश से मिलता है कि सरकार के लिए बीमा विधेयक पर संसद का संयुक्त सत्र बुलाना भी मुश्किल हो जाए। यह सहज-स्वाभाविक है कि किसी विषय-विधेयक पर राच्यसभा का दृष्टिकोण लोकसभा से भिन्न हो, लेकिन इसके आधार पर वह सत्तापक्ष के शासन करने के अधिकार को बाधित नहीं कर सकती। मोदी सरकार को बीमा विधेयक के साथ-साथ श्रम कानूनों में सुधार संबंधी विधेयकों पर भी राच्यसभा में विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ सकता है। केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में भी संशोधन चाह रही है, लेकिन इस पर भी कांग्रेस का सुर बेसुरा है। मोदी सरकार के लिए जो काम कर पाना मुश्किल हो रहा है वह राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार ने करीब-करीब कर दिखाया है। उसने भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए राजस्थान राजमार्ग अधिनियम में संशोधन का विधेयक पारित करा लिया है। अब राजस्थान में राजमागरें के लिए 81 दिन में भूमि का अधिग्रहण हो सकता है। केंद्र के भूमि अधिग्रहण कानून के तहत इस काम में 150 दिन लगेंगे। राजस्थान सरकार ने श्रम सुधारों से संबंधित चार संशोधन विधेयक भी पारित करा लिए हैं। इन सभी पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने भर शेष हैं। वसुंधरा राजे यह सब इतनी आसानी से इसलिए कर सकीं, क्योंकि विधानसभा में उन्हें प्रबल बहुमत प्राप्त है और राजस्थान में विधान परिषद है नहीं। बेहतर हो कि राच्यसभा सचिन और रेखा की गैरहाजिरी पर चिंतित होने के बजाय देश की चिंताओं का समाधान करने के बारे में सोचे।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]


Wednesday 16 July 2014

संसद की गिरती गरिमा

न चलने का नाम संसद 
  Feb 4, 2014,

15 वीं लोकसभा का कार्यकाल समाप्ति पर है और 16 वीं के गठन के लिए चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। बुधवार से मौजूदा लोकसभा का आखिरी सत्र शुरू हो रहा है। लेकिन यह देखना सचमुच निराशाजनक है कि इस अंतिम सत्र में हमारे सांसद अगर असाधारण सौहार्द और परिपक्वता का परिचय दें तो भी 15 वीं लोकसभा को इतिहास में सबसे नाकारा सदन के रूप में दर्ज किया जाएगा।  इस लोकसभा ने पांच साल के अपने कार्यकाल में कुल जमा 165 बिल पास किए, जो आजादी के बाद गठित सभी लोकसभाओं की तुलना में सबसे कम हैं। इस वक्त संसद के सामने कुल 126 बिल लंबित पड़े हैं जिनमें 72 सिर्फ लोकसभा में धूल खा रहे हैं और इसका कार्यकाल समाप्त होने के साथ ही बेमौत मर जाएंगे। कोई बिल कितने टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुए संसद के पटल तक पहुंचता है, यह ध्यान में रखें तो सहज ही अंदाजा होता है कि यह श्रम और ऊर्जा की कितनी बड़ी बर्बादी है।  अगर ये लंबित बिल संसद में पेश कर दिए गए होते और बहस के बाद इन्हें पास करने लायक नहीं माना जाता या इन पर अलग से विचार की जरूरत महसूस करते हुए इन्हें स्टैंडिंग कमेटी के पास भेज दिया गया होता तो भी ठीक था। लेकिन सरकार इन्हें लोकसभा में पेश करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाई। इससे ऐसा लगता है कि सरकार का मुख्य अजेंडा किसी तरह खुद को बचाए रखने का ही बना रहा, जो अंतत: इसकी बेचारगी ही बयान करता है। हालांकि संसद की कार्रवाई को लेकर विपक्ष का रवैया भी ऐसा नहीं रहा, जिससे भारत के संसदीय लोकतंत्र को लेकर कोई उम्मीद जगती हो। इसमें कोई शक नहीं कि विरोध की आजादी लोकतंत्र की मूल आत्मा है। लेकिन विरोध और असहमति का अर्थ अगर संसद ठप करके सारी बहसें टीवी पर चलाने का हो जाए तो इससे संसद के महत्वहीन हो जाने का खतरा पैदा होता है।  निस्संदेह, मनमोहन सरकार का यह दूसरा कार्यकाल विवादों और घपलों-घोटालों से भरा रहा। ऐसे में विपक्षी दलों का संसद के अंदर तगड़ा विरोध करना स्वाभाविक था। लेकिन, क्या एक जिम्मेदार विपक्ष को यह सुनिश्चित नहीं करना चाहिए कि सरकार को कटघरे में खड़ा करने की उसकी कोशिशें राष्ट्रीय हितों के आड़े न आएं? ऐसा लगता है कि संसद की गरिमा के सवाल को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने पूरा दोष एक-दूसरे के मत्थे मढ़ने में ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाई।  पूरा राजनीतिक नेतृत्व ही संसदीय लोकतंत्र का दिल कही जाने वाली संस्था के प्रति इस हद तक गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार करे, इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति एक व्यवस्था के लिए कोई और नहीं हो सकती। आशंका है कि बिल पास कराने से लेकर राजनीतिक विमर्श संचालित करने तक के मामले में जाहिर हुई 15 वीं लोकसभा की विफलता आने वाले कई वर्षों तक देश पर बुरा असर डालेगा और संसद के प्रति जनता का भरोसा वापस लौटाने के लिए भगीरथ प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी। 
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निराशाजनक शुरुआत
Tuesday,Jul 08,2014

संसद के बजट सत्र की शुरुआत जिस तरह हंगामे से हुई वह निराशाजनक है। यह ठीक है कि कांग्रेस और कुछ अन्य दलों ने महंगाई के सवाल को दोनों सदनों में उठाने की बात की थी, लेकिन इसकी अपेक्षा नहीं की जा रही थी कि लोकसभा में पहला दिन ही हंगामे से दो-चार होगा। आखिर महंगाई पर जैसी चर्चा राज्यसभा में हुई वैसी लोकसभा में क्यों नहीं हो सकती थी? शायद विपक्ष महंगाई पर चर्चा करने के बजाय हंगामा करने के लिए अधिक इच्छुक था। उसका जोर इस पर था कि महंगाई पर वोटिंग वाले नियम के तहत चर्चा हो। सरकार ऐसे नियम वाले प्रावधान के तहत चर्चा करने से बचना चाहती थी। महज 41 दिन पुरानी सरकार को वोटिंग वाले नियम के तहत महंगाई पर चर्चा के लिए विवश करने का कोई तुक नजर नहीं आता। वैसे भी चर्चा महत्वपूर्ण होती है, न कि उसके बाद वोटिंग कराना। वोटिंग वाले प्रावधान के तहत महंगाई पर चर्चा की मांग का तब तो कोई औचित्य बनता था जब सरकार ने साल-डेढ़ साल का कार्यकाल पूरा कर लिया होता और इस दौरान महंगाई पर होने वाली चर्चाओं से कुछ हासिल नहीं हुआ होता। कांग्रेस को यह अच्छी तरह स्मरण होगा कि उसने सत्ता में रहते समय कितनी बार वोटिंग वाले प्रावधान के तहत महंगाई पर चर्चा कराई। नि:संदेह महंगाई एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और केंद्र सरकार से यही अपेक्षा की जाती है कि वह ऐसे प्रयास करे जिससे यदि महंगाई कम नहीं हो सकती तो उसे बढ़ने न दिया जाए। यह ठीक नहीं कि पिछले कुछ समय से खाद्य पदार्थो के दाम बढ़ते दिखाई दिए हैं। हालांकि राज्यसभा में वित्तामंत्री अरुण जेटली ने महंगाई पर चर्चा के दौरान यह भरोसा दिलाया कि सरकार हरसंभव प्रयास कर रही है और घबराने की जरूरत नहीं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि विपक्ष ऐसे आश्वासनों पर संतुष्ट होगा।
महंगाई अथवा अन्य मुद्दों पर विपक्ष को विरोध के लिए विरोध के रवैये का परित्याग करना होगा। नि:संदेह सत्तापक्ष से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह विपक्ष को संतुष्ट करे। इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा में उसके पास पर्याप्त से अधिक बहुमत है, लेकिन उसके, संसद और देश के हित में यही है कि सत्तापक्ष और विपक्ष में तालमेल कायम हो। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि पिछली लोकसभा का अनुभव बहुत ही खराब रहा। 15वीं लोकसभा जिस तरह लगातार हंगामे से दो-चार होती रही उससे राजनीतिक दलों के साथ-साथ संसद की गरिमा भी प्रभावित हुई है। जिस तरह यह अपेक्षित है कि भाजपा बदले हुए रुख-रवैये का परिचय दे उसी तरह विपक्ष से भी यह अपेक्षा की जाती है कि वह बात-बात पर हंगामा करने से बचे। 16वीं लोकसभा के इस पहले बजट सत्र पर सारे देश की निगाहें लगी हुई हैं, क्योंकि अर्थव्यवस्था गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है और यह अपेक्षा की जा रही है कि नई सरकार इन चुनौतियों से निपटने की ठोस रूपरेखा प्रस्तुत करेगी। यह तभी संभव है जब संसद में सार्थक कामकाज हो। यह सही है कि विपक्ष को सरकार के फैसलों का विरोध करने का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार का इस्तेमाल इस तरह किया जाना चाहिए कि संसद का कामकाज बाधित न हो।
[मुख्य संपादकीय]
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ताकतवर संसद के सामने तापस
Tuesday,Jul 08

संसद का बजट सत्र शुरू हो गया। पहले ही दिन वैसा ही हंगामा देखने को मिला जैसा पहले भी देखने को मिलता रहा है। पहले जो हंगामे से दो-चार होते थे वे अब खुद हंगामा करते दिखे। यह संसद की रीति बन गई है। सत्तापक्ष जब विपक्ष में आता है तो वह वैसा ही व्यवहार करता है जैसे व्यवहार को वह निषेध कहा करता था। शायद संसद अपने कुछ अवांछित तौर-तरीकों से कभी नहीं मुक्त होने वाली, लेकिन बावजूद इसके यह उम्मीद की जाती है कि सत्तापक्ष-विपक्ष ने 15वीं लोकसभा के खराब कार्यकाल से कुछ सबक सीखे होंगे। बजट सत्र से यह पता चल जाएगा कि सत्तापक्ष-विपक्ष को अपनी और साथ ही संसद की गरिमा की कोई परवाह है या नहीं? हाल के समय में जनता को यह अहसास कराया गया है कि संसद महान, पवित्र और ताकतवर है। संसद के कार्य-व्यवहार पर सवाल खड़े करने वालों को अपनी सीमा में रहने की हिदायत भी दी गई है। यदा-कदा ऐसी हिदायतें उन सांसदों को भी मिली हैं जिन्होंने संसद के अंदर या बाहर बुरा बर्ताव किया है। बुरा बर्ताव करने वाले एक सांसद इन दिनों बहुत कुचर्चित हैं। सारे देश को यह प्रतीक्षा है कि महान, पवित्र और ताकतवर बताई जाने वाली संसद अपने इस सदस्य से किस तरह पेश आती है।
इन संसद सदस्य का परिचय जानने के पहले यह जान लें कि उन्होंने किया अथवा कहा क्या है? उन्होंने कहा, ''अगर कोई माकपाई यहां है तो सुन ले कि किसी तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता या उसके घर वालों को हाथ लगाया गया तो उसकी खैर नहीं। मैं तो गुंडा हूं। गोली मार दूंगा। अगर किसी ने तृणमूल कांग्रेस की माताओं-बहनों का अपमान किया तो मैं अपने लड़कों को कहूंगा कि वे ऐसा करने वालों के घर जाएं और रेप करें।'' वह यह कहते भी सुने गए, ''जब तक मैं तुम्हारे साथ हूं, किसी माकपा कार्यकर्ता को बख्शो नहीं। तुम सब बोंटी तो रखते ही होगे। उसी से उनके गले रेत दो।'' उनका एक और भाषण ऐसा था, ''धारदार हथियार तैयार रखो और उनके सिर के बीचों-बीच मारो। मैं देखता हूं कोई पुलिस वाला कैसे तुम्हें गिरफ्तार करता है?'' अब शायद ही किसी को यह बताने की जरूरत हो कि यह सब कहने वाले कौन हैं? जी हां यह तृणमूल कांग्रेस के कृष्णानगर से दूसरी बार सांसद चुने गए तापस पाल ही हैं। अगर आप उनके इन भाषणों के वीडियो देख सकें तो आप यह पाएंगे कि वह किस तरह अपने लोगों को बताते हैं कि बोंटी से माकपाइयों का गला इस तरह काटें। चूंकि वह अभिनेता भी हैं इसलिए उनके लिए यह सब बताना बहुत आसान रहा होगा कि कैसे किसी को मारो-काटो। इस पर हैरान न हों कि ममता बनर्जी और दूसरे तृणमूल नेताओं ने उन्हें माफ कर दिया है। तृणमूल में इस माफी पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, क्योंकि मां-माटी और मानुष की बात करने वाली ममता बनर्जी पहले ही यह कह चुकी हैं कि क्या मैं उसकी जान ले लूं? हालांकि तापस पाल को अब तक गिरफ्तार हो जाना चाहिए था, लेकिन बंगाल की पुलिस में यह साहस ही नहीं। तापस खुले आम रेप कराने की धमकी दे रहे थे और विरोधियों की हत्या करने के लिए अपने लोगों को उकसा रहे थे। नियम-कानून-संविधान पर ऐसे खुले हमले के बावजूद अगर वह आजाद घूम रहे हैं तो ममता बनर्जी और उनकी पुलिस की कृपा से।
ममता केवल तापस पर ही मेहरबान नहीं हैं। वह अपने अन्य नेताओं-अर्बुल इस्लाम, अनुब्रत मंडल, मनीरुल इस्लाम, अरूप चक्रवर्ती, मदन मित्रा और ज्योतिप्रिय मलिक पर भी मेहरबान हैं। इनमें से कई मंत्री भी हैं। ये वे नेता हैं जो विरोधियों को चुनाव न लड़ने देने और उनके घरों को बम से उड़ा देने की सलाह अपने कार्यकर्ताओं को देते रहे हैं। वामदलों से भी ज्यादा गुंडागर्दी का प्रदर्शन तृणमूल कांग्रेस की विशेषता बन गई है। बंगाल के लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या इसी परिवर्तन के लिए ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी हैं, लेकिन वह बेपरवाह हैं। उन पर किसी का जोर नहीं, लेकिन आखिर हमारी ताकतवर संसद तापस के खिलाफ कुछ करेगी या नहीं? यदि संसद तापस के मामले में मौन बनी रहती है तो उसके लिए अपनी गरिमा बचाए रखना मुश्किल होगा। आखिर ऐसा व्यक्ति संसद का हिस्सा कैसे रह सकता है जो लोगों को हिंसा के लिए उकसाता हो और महिलाओं के प्रति बेहूदे ढंग से बात करता हो? क्या संसद ऐसे सदस्य को सहन कर लेगी जो राजनीतिक विरोधियों खत्म करने की बात कहते हुए यह भी बताता हो कि अमुक हथियार से इस तरह उनका गला काट दो?
यह नहीं भूला जा सकता कि तापस पाल ने एक नहीं दो-दो बार संविधान रक्षा की शपथ ली है। क्या संसद अपने सदस्यों को इस तरह की बातें करने का अधिकार प्रदान करती है जैसी तापस ने कीं? अगर नहीं तो लोकसभा अध्यक्ष या संसद की आचरण समिति के स्तर पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होती क्यों नहीं नजर आ रही है? तापस पाल का आचरण उन सांसदों से भी ज्यादा गंभीर है जिन्होंने पैसे लेकर सवाल पूछने या फिर सिफारिशी चिट्ठियां लिखने का काम किया था। यदि उनकी सदस्यता छीनना मुश्किल हो तो कम से कम उन्हें संसद के दो-तीन सत्रों से बहिष्कृत करने और इस दौरान उनके वेतन-भत्तो काटने का काम तो किया ही जा सकता है। तापस पाल का कृत्य इतना शर्मनाक है कि उनके खिलाफ कार्रवाई न होने से कानून और संविधान के साथ-साथ संसद का भी मजाक उड़ेगा। अगर संसद तनिक भी शक्तिमान है तो उसे तापस पाल सरीखे सांसदों को सबक सिखाने की साम‌र्थ्य जुटानी ही चाहिए। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री ने दुष्कर्म के मामलों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने वालों को मौन रहने की सलाह दी थी। इस सलाह पर अमल किया जा सकता है, लेकिन ऐसे सांसद पर मौन नहीं रहा जा सकता जो विरोधियों के घरों में दुष्कर्म कराने की बात करता हो।
[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]
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संसद की गिरती गरिमा
Thursday,Jul 10,2014

16वीं लोकसभा की संरचना, अपने आप में ही बदलाव का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है। कुछ लोग इस बदलाव को बहुत उम्मीद से देख रहे हैं, जबकि कुछ लोग भारत के भविष्य को लेकर अब भी चिंतित हैं। विचारधाराओं और संबद्धताओं में भिन्नता रखने वाले हमारे देशवासी इस बात से जरूर सहमत होंगे कि इस नई सरकार को वषरें से किए अधूरे वादों को पूरा करना होगा, लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा, आर्थिक मंदी से देश को निकालना होगा और प्रशासनिक गड़बड़ियों को सुलझाना होगा। मेरा मानना है कि देश की निराश-हताश जनता के भरोसे को जीतने के लिए सत्तारूढ़ सरकार और जनप्रतिनिधियों को सर्वप्रथम संसद की गरिमा को दोबारा बहाल करना होगा।
15वीं लोकसभा स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली लोकसभा के रूप में याद की जाएगी। अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में इस लोकसभा में केवल 345 दिन ही कार्य संभव हो सका, जिसमें 165 विधेयक पारित किए गए और लगभग इतने ही विधेयक लंबित पड़े हैं, जिन्हें 16वीं लोकसभा में दोबारा पेश करना होगा। 15वीं लोकसभा में लगभग 35 प्रतिशत विधेयक एक घंटे से कम समय की चर्चा के बाद पारित कर दिए गए। इन आंकड़ों के सहारे और संसद में सांसदों के दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार की कई घटनाओं के कारण बहुत से लोग यह मानते हैं कि पिछले पांच वषरें में भारत की कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था अपने मूलभूत कार्य में, अर्थात कानून के निर्माण में बुरी तरह से असफल रही है।
कई लोग संसद के इस निराशाजनक प्रदर्शन की जड़ पिछली सरकार की भिन्न विचारों को समायोजित करने और संसद में आम सहमति प्राप्त करने की अक्षमता में देखते हैं। हालांकि यह आंशिक रूप से सही है। मेरा मानना है कि संसद की इस स्थिति के पीछे का असली कारण है ब्रिटिश राज के रहस्यमयी नियम और प्रक्त्रियाएं जो आज भी हमारी संसद में लागू हैं और जो सभी दलों को संसद की कार्यवाही में बराबरी से हिस्सा लेने में बाधा डालती हैं।
भारत की संसद का गठन 1919 में हुआ था। देश के स्वतंत्रता प्राप्त करने से लगभग 30 वर्ष पहले। तब राष्ट्रवाद अपने चरम पर था और यह बात ब्रिटिश राज को सता रही थी। इस विद्रोह को कुछ हद तक कम करने के लिए और पूर्ण स्वतंत्रता की कठोर मांगों को विलंबित करने के लिए, अंग्र्रेजों ने संसद का निर्माण किया। इससे उन्होंने अभिजात वर्ग के कुछ चयनित प्रतिनिधियों को चुनिंदा मामलों में अपने मतों को व्यक्त करने का और कुछ कानून पारित करने का मौका दिया, लेकिन सच यह है कि किसी भी फैसले पर अंतिम निर्णय का अधिकार वाइसरॉय ने अपने पास बरकरार रखा।
स्वतंत्रता से लेकर आज तक संसद चलाने से जुड़े कई नियम बदले नहीं गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण और जो आज के समय में संसद में सबसे च्यादा बाधाओं का कारण है, वह है बहस और अन्य प्रस्ताव। उदाहरण के लिए निंदा प्रस्ताव को दाखिल किए जाने की प्रक्रिया। औपनिवेशिक काल से चला आ रहा यह नियम स्पीकर को यह खास अधिकार देता है। वास्तव में, ऐसे मामलों पर स्पीकर के निर्णय बिजनेस एडवाइजरी कमेटी द्वारा आम सहमती पर आधारित होते हैं, जिसमें संसद में सभी प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व होता है। सदन में सरकार के पास बहुमत होता है, इसलिए सदन से जुड़े सभी कायरें में उसके निर्णय सबसे महत्वपूर्ण होते हैं और इस प्रकार से ऐसे विषय जो सरकार को असहज करें, पेश नहीं किए जाते। आम सहमति की यह आवश्यकता सरकार को संसद में होने वाली किसी भी प्रकार की बहस या मतदान के ऊपर वीटो प्रदान करती है। जिस वीटो को मूल रूप से स्वतंत्रता पूर्व भारत की संसद को नियंत्रण में रखने के लिए वाइसरॉय के लिए बनाया गया था, उसका दुरुपयोग स्वतंत्र भारत में अब भी किया जा रहा है। इसके अलावा सत्तारूढ़ दल अकसर किसी ऐसे विषय पर चर्चा के बाद मतदान की मांगों को अनसुना करके, जहां उसे अपने दावे से कम समर्थन मिलने की स्थिति में शर्मिंदा होना पड़ सकता है, केवल ध्वनि मत द्वारा विधेयक पारित करने की कोशिश करता है। इस कारण कई महत्वपूर्ण कानून जो विस्तृत बहस के योग्य होते हैं ध्वनि मत से और अकसर शोरगुल में पारित कर दिए जाते हैं।
विडंबना से, ब्रिटिश स्वयं इस प्रणाली का पालन नहीं करते हैं। न ही बहुत से अन्य लोकतंत्र, जहांके नियम किसी भी प्रकार की बहस, प्रस्ताव और मतदान को दाखिल करने के लिए सांसदों की न्यूनतम संख्या को स्पष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में, एक चर्चा को अनुमति देने के लिए 40 सांसदों की आवश्यकता होती है। यूनाइटेड स्टेट्स में अड़ंगेबाजों पर काबू पाने के लिए 60 सीनेटरों की आवश्यकता होती है, जहां अन्यथा किसी मसले पर मतदान टालने के लिए सदस्यों को निरंतर बोलने की अनुमति होती है। भारत में भी, सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव को दाखिल करने के लिए 55 सांसदों की आवश्यकता होती है, लेकिन अगर सरकार की सहमति न हो तो बहस के बाद मतदान की मांग रखने वाले सांसद प्रस्ताव को दाखिल नहीं कर सकते। दुनिया भर में स्वतंत्र विधानमंडलों में बहस के बाद मतदान आम होता है। अब समय आ गया है भारत में भी इस प्रथा को अपनाया जाए।
अब भूमिकाओं में परिवर्तन आ गया है। कुछ समय पहले तक जो दल विपक्षी दल कहलाता था वह अब संसद में सरकार बना चुका है। सत्तारूढ़ दल अपने लाभ के लिए उन्हीं प्रावधानों का दुरुपयोग कर सकते हैं या फिर बेहतरीन अंतरराष्‌र्ट्रीय प्रथाओं का पालन कर संसद के कार्य में थोड़े-बहुत बदलाव ला सकते हैं। मुझे विश्वास है कि ऐसे बदलावों का विभिन्न दलों के सांसद समर्थन करेंगे और इससे आम जनता के बीच हमारी सर्वोच्च संस्था की विश्वसनीयता दोबारा बहाल होगी। संसद बाधित होने से विकास कार्य और कल्याणकारी योजनाएं बाधित होती हैं। इसके अलावा, संसद में कामकाज न चलने तथा शोर-शराबे के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था से लोगों का विश्वास भी डिगता है। इसलिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि संसद के सुचारू संचालन में बाधा बनने वाले नियमों में जल्द से जल्द सुधार किया जाए ताकि जब पांच साल बाद हम 16वीं लोकसभा के कामकाज की विवेचना करें तो हमें 15वीं लोकसभा की तरह निराश न होना पड़े।
[लेखक बैजयंत जय पांडा, बीजू जनता दल के सांसद हैं]
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साख में सुधार की झलक

Sun, 17 Aug 2014

संसद का बजट सत्र बीते गुरुवार को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया। करीब सवा महीने तक चले संसद के इस सत्र में जनता से जुड़े ढेरों मुद्दों पर जमकर बहस हुई। सांसदों ने अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह किया। यही वजह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से सत्र की सफलता का जिक्त्र करना नहीं भूले। मोदी ने बजट सत्र में दिखी गंभीरता के लिए सत्तापक्ष के साथ-साथ प्रतिपक्ष केसभी सांसदों का भी अभिवादन किया। जाहिर है सहमति का यह मजबूत धरातल ही संसदीय सत्र को सफल बनाता है। 16वीं लोकसभा का यह दूसरा सत्र था, जिसमें कुल 27 बैठकें हुईं। 167 घंटों तक चले सत्र में हमारे माननीयों ने जमकर हिस्सा लिया। इस सत्र में ही मोदी सरकार का पहला रेल बजट सामने आया, जिसमें पहली बार देश को बुलेट ट्रेन देने का वादा किया गया है। रेलवे के विकास को लेकर सरकार ने अपना विजन भी पेश किया। इस दौरान सरकार ने देश के समक्ष अपना पहला आम बजट भी पेश किया, जिसे लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं को विश्वास में बदलने वाला और गरीबों के लिए आशा की एक नई किरण बताया गया है। संसद के इस सत्र के दौरान लोकसभा में रेल बजट पर 13 घंटे और आम बजट पर 15 घंटे की चर्चा के दौरान तमाम विपक्षी दलों और अन्य सदस्यों की तरफ से ढेरों सुझाव सामने आए। इस दौरान सदन में आरोप-प्रत्यारोप, व्यंग्य, विनोद सब कुछ दिखा। इस बीच लोकसभा ने सर्वसम्मति से अपना उपाध्यक्ष चुना। परंपरानुसार यह पद विपक्ष को ही दिया जाता रहा है, हालांकि इस बार सरकार ने यह सम्मान विपक्ष में बैठे सबसे बड़े दल यानी कांग्रेस को नहीं, बल्कि दूसरे सबसे बड़े विपक्षी दल एआइएडीएमके को दिया। राजनीतिक गणित को हल करते हुए डॉ. एम थंबीदुरई सर्वसम्मति से लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए।
प्रश्नकाल के लिहाज से यह सत्र बहुत ही सफल रहा। सरकार की तरफ से मंत्रियों ने 540 प्रश्नों में से 126 सवालों के मौखिक जवाब दिए यानी हर रोज औसतन 5 जवाब दिए गए। सत्र के दौरान एक दिन में आठ सवालों का जवाब देना और एक ही मंत्री द्वारा पूरे प्रश्नकाल के सभी सवालों के जवाब देना भी किसी रिकॉर्ड से कम नहीं कहा जाएगा। सत्र के दौरान महंगाई, बाढ़ व सूखा, महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार और इंसेफेलाइटिस जैसी जानलेवा बीमारी पर गंभीर चर्चाएं हुईं। हालांकि सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर चर्चा का मामला कहीं अधिक सुर्खियों में रहा, जिस पर बहस की मांग को लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी संभवत पहली बार वेल तक हो-हल्ला करते हुए पहुंचे अवश्य, लेकिन चर्चा में शिरकत करने से दूर ही रहे। इसके साथ ही संघ लोकसेवा आयोग के सी-सैट तथा इराक में फंसे हुए भारतीय नागरिकों विशेषकर नसरें के मसले को उठाया गया। विधेयकों के पुन: स्थापित एवं पारित किए जाने के मामले में भी पिछली लोकसभा के पहले बजट सत्रों के मुकाबले इस बार आंकड़े कहीं बेहतर थे।
लोकसभा में 2004 में केवल 6 और 2009 में महज 8 विधेयक ही पारित किए जा सके थे, जबकि इस बार यह आंकड़ा 13 विधेयकों तक जा पहुंचा। राच्यसभा में भी स्थितियां बेहतर रहीं। हालांकि विपक्ष, खासकर कांग्रेस पार्टी के विरोध के चलते सरकार बीमा कानून संशोधन विधेयक को पारित नहीं करा सकी, लेकिन संविधान संशोधन विधेयक-2014 और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक-2014 पर सदन ने सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगाई। इसके तहत जजों की नियुक्ति से संबंधित करीब दो दशक पुरानी कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है, ताकि न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके। ऐसा नहीं कि इस बार सत्र के दौरान लोकसभा में व्यवधान नहीं डाले गए, लेकिन सदस्यों ने देर तक बैठकर लंबित कायरें को पूरा करके एक सकारात्मक संदेश दिया। जाहिर है इससे संसद की छवि सुधरेगी। जिस सदन में 300 से च्यादा सांसद पहली बार चुनकर आए हों, वहां अगर प्रश्नकाल रिकॉर्ड स्थापित करता है, लंबित पड़े कामों को निपटाने के लिए और नुकसान हुए समय की भरपाई के लिए अतिरिक्त बैठकें होती हैं, अधिकाधिक सांसद चर्चाओं में शिरकत करते हैं तो यकीनन यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। लोकसभा में दिखे इस चमत्कारिक बदलाव का श्रेय काफी हद तक लोकसभा की वर्तमान अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को जाता है। जाहिर है सत्र का सफल या असफल होना स्पीकर के संचालन पर भी निर्भर करता है। दरअसल अध्यक्ष बनते ही सुमित्रा महाजन ने व्यवधान पैदा करने वालों को सख्ती से निपटने का संदेश दिया था। सत्र के दौरान नियमों को ताक पर रख कर हंगामा मचाने वाले कुछ माननीय सदस्यों के खिलाफ अध्यक्ष की गंभीर टिप्पणियों ने सकारात्मक प्रभाव छोड़ा, जिसके चलते सत्र के दौरान नियमों के पालन के प्रति गंभीरता पिछले कई वषरें के मुकाबले कहीं अधिक दिखी। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी भी अक्सर ऐसी ही सख्ती दिखाते थे। लोकसभा अध्यक्ष ने संसद की तस्वीर सुधारने के मकसद से अन्य कई गंभीर प्रयास या कहें उपाय भी किए हैं। पहली बार चुनकर आए जनप्रतिनिधियों के लिए दो प्रबोधन कार्यक्त्रम आयोजित किए जा चुके हैं, जिसमें माननीयों को संसदीय नियमों की जानकारी दी गई। अध्यक्ष ने सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच की संवादहीनता को भी कम करने का सफल प्रयास करते हुए विपक्ष को अपनी बात रखने का पर्याप्त समय दिया गया। महंगाई और सांप्रदायिक हिंसा विधेयक पर हुई घंटों की चर्चाएं इसका उदाहरण हैं। नए सांसदों को बोलने के लिए प्रोत्साहित किया गया और उन्हें मौका दिया गया। यकीनन 15वीं लोकसभा के रिकॉर्ड हंगामे के मुकाबले इस बार स्थितियां गुणात्मक रूप से सुधरी हैं। उम्मीद है कि इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भविष्य में भी हमारे माननीय जनाकांक्षाओं पर खरा उतरेंगे। इस संदर्भ में सभी सदस्यों को समझना होगा कि संसद हंगामे का नहीं, बल्कि चर्चा और विचार-विमर्श का सर्वोच्च मंच है।
[लेखक अनुराग दीक्षित, वरिष्ठ पत्रकार हैं]
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सदन की मर्यादा

जनसत्ता 11 जुलाई, 2014 : पिछले कुछ सालों से संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधियों के हंगामा खड़ा करने, सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाने या फिर अपनी हरकतों से सदन की मर्यादा को कलंकित करने की घटनाएं बढ़ी हैं। पर इस तरह अगर कोई सदस्य पीठासीन अधिकारी पर भी निराधार आरोप लगाना शुरू कर दे तो इसे निहायत गैर-जिम्मेदाराना रवैया ही कहा जाएगा। तृणमूल कांग्रेस के सांसदों का आरोप है कि मंगलवार को रेल बजट पर अपना विरोध जताते हुए उसके सदस्यों के साथ कुछ भाजपा सांसदों ने दुर्व्यवहार किया, अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया और धमकी दी। अगर ये आरोप सही भी हैं तो क्या उसके विरोध का यह तरीका होना चाहिए कि लोकसभा अध्यक्ष पर ही अंगुली उठा दी जाए! सदन में व्यवस्था बनाए रखना अध्यक्ष की जिम्मेदारी है और इसके लिए उनकी ओर से सदस्यों को कोई निर्देश भी जारी किया जा सकता है। मगर बुधवार को लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जब हाथ में तख्तियां लेकर विरोध जता रहे तृणमूल सदस्यों से शांत रहने का आग्रह किया तो उन्होंने उन्हीं पर भाजपा की प्रवक्ता होने का आरोप लगा दिया। हालांकि तृणमूल सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में इसके लिए माफी मांगी, लेकिन सच यह है कि अध्यक्ष पर जिस तरह की टिप्पणी की गई, उससे सदन की गरिमा को चोट पहुंची। कुछ भाजपा सांसदों ने अगर तृणमूल सांसदों के साथ दुर्व्यवहार किया या धमकी दी और दोनों पक्षों के बीच हाथापाई होते-होते रह गई, तो निश्चित रूप से यह निंदनीय है और ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन तृणमूल सांसदों ने भी इसके विरोध के लिए जो तरीका अपनाया उसे लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। यह बेवजह नहीं है कि लोकसभा अध्यक्ष को सभी दलों से अपील करनी पड़ी कि वे अपने सदस्यों को सदन में अमर्यादित आचरण से बचने को कहें; सदस्यों का ऐसा व्यवहार सदन की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि विरोध के नाम पर सदन में जैसी गैर-जिम्मेदाराना हरकतें सामने आने लगी हैं, उससे आखिरकार विधायी कामकाज बाधित होते हैं और अहम फैसलों पर सार्थक बहस नहीं हो पाती। मुश्किल यह भी है कि संसद या विधानसभाओं में अमर्यादित आचरण करने वाले सांसदों-विधायकों के खिलाफ न तो उनकी पार्टियां कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करती हैं और न सदन की तरफ से कोई सख्त कदम उठाए जाते हैं। सवाल है कि सदन में मिर्ची  पाउडर छिड़क कर दहशत पैदा करने, सभापति या उपसभापति पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने या दस्तावेज छीनने, ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मियों को थप्पड़ मारने जैसी घटनाओं में कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए? जनप्रतिनिधियों का आचरण जनता के लिए नजीर होना चाहिए। लेकिन विडंबना है कि खुद हमारे नुमाइंदों को इस बात की फिक्र नहीं है कि उनके बर्ताव से जनता के बीच क्या संदेश जा रहा है। दरअसल, संसद और विधानसभाओं में बड़ी तादाद में आपराधिक मामलों के आरोपियों का पहुंचना भी एक बड़ी समस्या खड़ी कर रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक इस बार लोकसभा में दागी सांसदों की संख्या पिछली लोकसभा के मुकाबले ज्यादा है और हर तीसरा सांसद दागी है। इसके अलावा, दो-तिहाई से ज्यादा सांसद करोड़पति हैं। ऐसे सदस्यों से लोकतांत्रिक और परिपक्व राजनीतिक व्यवहार की कितनी अपेक्षा की जा सकती है! समय रहते सभी राजनीतिक दलों ने सदन की कार्यवाही और मर्यादा को लेकर ठोस कदम नहीं उठाए, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को लेकर उठाए जाते प्रश्न और गहरे होंगे।