Thursday 4 September 2014

नेता-प्रतिपक्ष की नियुक्ति


विपक्ष की जगह

जनसत्ता 21 अगस्त, 2014 : आखिरकार लोकसभा अध्यक्ष ने कांग्रेस की यह मांग ठुकरा दी कि सदन में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रतिपक्ष के नेता की मान्यता दी जाए। उनका यह निर्णय परिपाटी के अनुरूप भले हो, हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए ठीक नहीं है। फिर, वैधानिक दृष्टि से भी इस फैसले को पूरी तरह उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। लोकसभा में विपक्ष के नेता-पद का मुद्दा बजट सत्र की शुरुआत से ही कांग्रेस और सत्तापक्ष के बीच तनातनी का विषय बना रहा है। लिहाजा, लोकसभा अध्यक्ष ने इस मामले में निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले महाधिवक्ता की भी राय ली। खबर है कि सुमित्रा महाजन ने सोनिया गांधी को पत्र लिख कर कांग्रेस की मांग नामंजूर करने केपीछे दो खास कारण बताए हैं। एक यह कि कांग्रेस लोकसभा में नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी की शर्त पूरी नहीं करती। उन्होंने परिपाटी का हवाला देते हुए बताया है कि इस पद के लिए लोकसभा में संबंधित पार्टी के पास कम से कम दस फीसद सीटें होना जरूरी है। पांच सौ तैंतालीस सदस्यीय लोकसभा में कांग्रेस के चौवालीस सदस्य हैं। यह आंकड़ा लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या के दस फीसद से कम है। सुमित्रा महाजन ने दूसरे कारण के तौर पर महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की राय का उल्लेख किया है। रोहतगी ने भी पिछले दिनों यही तर्क पेश किया था कि नेता-प्रतिपक्ष के दर्जे के लिए कम से कम दस प्रतिशत सीटें होना जरूरी है। जाहिर है, महाधिवक्ता ने भी परिपाटी को ही अपने सुझाव का आधार बनाया है। लेकिन 1977 में बने नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं से संबंधित कानून ने इस चलन को ढीला करने की गुंजाइश पैदा की। इस कानून में लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को नेता-प्रतिपक्ष मानने की बात कही गई है, इसमें न्यूनतम दस फीसद सीटों का कोई प्रावधान नहीं है। विडंबना यह है कि आज कांग्रेस अपने पक्ष में इस कानून की दुहाई दे रही है, पर उसने खुद इसका पालन नहीं किया। राजीव गांधी को चार सौ पंद्रह सीटों के साथ अपूर्व बहुमत मिला था। तब भी विपक्ष की कोई पार्टी दस फीसद सीटों तक नहीं पहुंच पाई थी। उस समय लोकसभा में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी तेलुगू देशम थी और इसी आधार पर वह सदन में अपने नेता पी उपेंद्र को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह करती रही। लेकिन उसकी मांग अनसुनी कर दी गई। तब भी लोकसभा अध्यक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी का रुख समान था। तब उस कानून को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया जो पहले बन चुका था? लेकिन कांग्रेस ने जो खराब मिसाल पेश की थी, भाजपा या मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष को उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए? नेता-प्रतिपक्ष का होना हमारी अनेक महत्त्वपूर्ण संस्थाओं की साख के लिए भी जरूरी है। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति में उसकी राय लेना अनिवार्य बनाया गया है। लोकपाल और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद सदस्यों के चयन में भी उसकी राय ली जानी है। नेता-प्रतिपक्ष का होना जहां हमारी संसदीय प्रणाली की मजबूती के लिए आवश्यक है, वहीं इन संस्थाओं में सत्तापक्ष की बेजा दखलंदाजी के अंदेशे से निपटने के लिए भी। लोकसभा अध्यक्ष ने अपने निर्णय की बाबत संसदीय परिपाटी का सहारा लिया है, मगर 1977 का नेता-प्रतिपक्ष से संबंधित कानून भी तो संसद से ही पारित हुआ था! फिर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के प्रावधान की अनदेखी क्यों कर दी गई? सुमित्रा महाजन ने कहा है कि सदन चाहे तो परिपाटी और नियम बदले जा सकते हैं। जरूर बदले जाने चाहिए। अच्छा होता कि अपना फरमान सुनाने से पहले उन्होंने इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई होती।

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सवाल और संदेश

जनसत्ता 25 अगस्त, 2014 : नेता-प्रतिपक्ष की बाबत लोकसभा अध्यक्ष के फैसले के कुछ ही दिन बाद सर्वोच्च न्यायालय के रुख से इस मामले में नया मोड़ आ गया है। गौरतलब है कि पिछले दिनों लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता-प्रतिपक्ष का दर्जा देने की मांग नामंजूर कर दी थी। उन्होंने अपने निर्णय का आधार संसदीय परिपाटी को बनाया, जिसके मुताबिक विपक्ष के नेता-पद की दावेदारी के लिए संबंधित दल के पास लोकसभा की कुल सदस्य-संख्या का कम से कम दस फीसद होना जरूरी है। केंद्र के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी की भी यही राय थी। परिपाटी की बात अपनी जगह सही है। पर लोकसभा अध्यक्ष ने दो बातों को नजरअंदाज कर दिया। एक, नेता-प्रतिपक्ष के वेतन-भत्तों के लिए 1977 में बने कानून को, जिसमें संबंधित सुविधाओं की खातिर न्यूनतम दस फीसद सीटों को नहीं, विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी को आधार मानने की बात कही गई है। दूसरे, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआइ निदेशक, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, मुख्य सूचना आयुक्त जैसी अहम नियुक्तियों में नेता-प्रतिपक्ष की राय लेना अनिवार्य है। लोकपाल की चयन समिति और प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग के दो न्यायविद-सदस्यों के चुनाव में भी उसकी राय ली जानी है। लोकपाल के चयन को लेकर स्वयंसेवी संगठन कॉमन कॉज की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने सरकार से पूछा है कि नेता-प्रतिपक्ष के बगैर लोकपाल की नियुक्ति कैसे होगी? अभी तक भाजपा परिपाटी की दुहाई देती आ रही थी। लेकिन अदालत के इस सवाल ने उसे बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सरकार का जवाब क्या होगा और अदालत उस पर अंतत: क्या फैसला सुनाएगी यह बाद की बात है। मगर अदालत की टिप्पणियों पर गौर करें तो उसके रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। पिछले हफ्ते मामले की सुनवाई के दौरान रोहतगी ने फिर यह दोहराया कि मावलंकर-नियम के अनुसार, नेता-प्रतिपक्ष की दावेदारी के लिए लोकसभा की दस फीसद सदस्य-संख्या होना जरूरी है। इस पर सर्वोच्च अदालत ने कहा कि केवल एक नियम या परिपाटी के आधार पर नेता-प्रतिपक्ष जैसी संस्था को दरकिनार नहीं किया जा सकता; संविधान में इस बारे में इसलिए कुछ नहीं कहा गया होगा, क्योंकि उस वक्त किसी ने यह नहीं सोचा कि ऐसी स्थिति आएगी। जाहिर है, अदालत ने नई स्थितियों में नए सिरे से सोचने की जरूरत रेखांकित की है। पिछले साल दिसंबर में पारित लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम के मुताबिक अगर चयन समिति में कोई पद खाली हो तब भी लोकपाल की नियुक्ति अवैध नहीं होगी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद अब वैसी छूट लेना संभव नहीं होगा। अब हो सकता है सरकार नेता-प्रतिपक्ष के विकल्प की जगह विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के नेता को लोकपाल चयन समिति में शामिल करने को तैयार हो जाए। क्या वैसे अन्य पदों पर होने वाली नियुक्तियों के लिए भी यही विकल्प अपनाया जाएगा? फिर, भविष्य में कोई और ऐसी संस्था गठित हुई जिसके स्वरूप या नेतृत्व को लेकर विपक्ष की राय जरूरी मानी गई, तो उसमें भी इसका अनुसरण करना पड़ेगा। इस तरह अलग-अलग प्रावधान करने के बजाय नेता-प्रतिपक्ष की कसौटी ही बदलना बेहतर होगा। यह सही है कि दस फीसद सीटों की परिपाटी संसद ने तय की थी, मगर 1977 में बना कानून और लोकपाल और न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे कानून भी तो संसद से ही पारित हुए हैं। इसलिए परिपाटी की दलील को अब खींचते रहने का कोई औचित्य नहीं है।
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जरूरी है नेता विपक्ष
Aug 23, 2014,

सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्ति को लेकर जो सवाल उठाया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। इस प्रश्न के जरिए उसने एक अहम मुद्दे की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है जिसे सरकार को समझना चाहिए। उसने गवर्नमेंट से जानना चाहा है कि विपक्ष के नेता के बगैर वह लोकपाल कैसे चुनेगी। गौरतलब है कि लोकपाल के सदस्यों को चुनने वाली कमिटी में प्रधानमंत्री और अन्य लोगों के अलावा नेता विपक्ष को भी सदस्य बनाया जाना है। लेकिन वर्तमान लोकसभा में फिलहाल कोई विपक्ष का नेता नहीं है। दरअसल इस बार लोकसभा का समीकरण ही कुछ ऐसा उभरकर आया है, जिसमें इस पद के लिए किसी की ठोस दावेदारी नहीं बनती। कांग्रेस ने विपक्ष का सबसे बड़ा दल होने के नाते इस पर दावा जताया, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने उसकी मांग यह कहकर ठुकरा दी कि पार्टी की सदस्य संख्या कुल सदस्य संख्या के दस फीसदी से कम है। हालांकि कांग्रेस की दलील है कि 1977 के नेता विपक्ष, वेतन एवं भत्ता कानून के मुताबिक सदन में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को यह पद मिल सकता है। इस तर्क के समर्थन और विरोध में बहस छिड़ गई है। हमारे संसदीय लोकतंत्र में विपक्षी नेता का पद काफी अहम है। वह जनता की ओर से सरकार पर दबाव बनाता है और एक तरह से उसे अपने दायित्वों की याद दिलाता रहता है। इसके अलावा वह लोकपाल, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, सीबीआई के निदेशक जैसे पदों पर नियुक्ति में अपनी राय रखता है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि सत्ता पक्ष अपनी मनमानी न कर सके। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की चिंता समझी जा सकती है। उसका जोर बस इस पर है कि हमारे सिस्टम में निहित जनतांत्रिकता पर आंच न आए। भले ही तकनीकी आधार पर किसी को नेता विपक्ष न बनाया जाए लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका पहले की तरह बनी रहे। वह अपना कार्य पहले की तरह गंभीरतापूर्वक करता रहे। वैसे सरकार ने मन बना लिया है कि वह इन पदों की चयन प्रक्रिया में सबसे बड़े दल के नेता को शामिल करेगी। यानी इसमें कांग्रेस के नेता को जगह मिलेगी। बेहतर होगा कि नेता विपक्ष को लेकर तकनीकी लड़ाई लड़ने के बजाय कांग्रेस इस मंच का सार्थक इस्तेमाल करे और इन पदों पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति सुनिश्चित करे। एक जिम्मेदार लोकपाल नियुक्त करना समय की मांग है। एक अपोजिशन पार्टी के रूप में वह इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। अदालत के संदेश को सरकार को भी समझना चाहिए। उसे ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे लगे कि वह असहमति की आवाज को कमजोर करना चाहती है। वह विपक्ष को संख्या बल से न आंक कर व्यवस्था में उसकी भूमिका का सम्मान करे। 
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